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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
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[शब्दनयानां वक्तव्यता ] शब्दनयास्तु मन्यन्ते- कारणस्यापि विषयस्य प्रतिपत्तिं प्रति नैव प्रमेयत्वं युक्तं यावदध्यवसायो न भवेत्, सोप्यध्यवसायविकल्पश्चेत् तदभिधानस्मृतिं विना नोत्पत्तुं युक्तः इति सर्वव्यवहारेषु शब्दसम्बन्धः प्रधानं निबन्धनम् । प्रत्यक्षस्यापि तत्कृताध्यवसायलक्षणविकलस्य बहिरन्तर्वा प्रतिक्षणपरिणामप्रतिपत्ताविव प्रमाणतानुपपत्तेः, अविसंवादलक्षणत्वात् प्रमाणानाम् । प्रतिक्षणपरिणामग्रहणेपि तस्य प्रामाण्याभ्युपगमे प्रमाणान्तरप्रवृत्तौ यत्नान्तरं क्रियमाणमपार्थकं स्यात् । ततः प्रमाणव्यवस्थानिबन्धनं तनामस्मृतिव्यवसाययोजनमर्थप्राधान्यमपहस्तयतीति शब्द एव सर्वत्र प्रमाणादिव्यवहारे प्रधानं कारणमिति स्थितम्।
[ पंचमस्य शब्दनयस्याभिप्रायः ] शब्दनयश्च ऋजुसूत्राभिमतपर्यायात् शुद्धतरं पर्यायं स्वविषयत्वेन व्यवस्थापयति । तथाहि- 'तटः तटी तटम्' इति विरुद्धलिंगलक्षणधर्माक्रान्तं भिन्नमेव वस्तु, न हि तत्कृतं धर्मभेदमननुभवतस्तत्सम्बन्धो युक्तः तद्धर्मभेदे वा स्वयं धर्मी कथं न भियते ? यथा हि क्षणिकं वस्तु अतीतानागताभ्यां क्षणाभ्यां अर्थनयों का अभिप्राय फलित हुआ।
★ शब्दनयों - प्रमाणादिव्यवहारों का मुख्य हेतु शब्द ★ अर्थनयों के प्रतिकार में शब्दनयों का वक्तव्य यह है- जब तक अध्यवसाय (यानी विकल्प) नहीं होता तब तक कारण होने पर भी विषय, बुद्धि का प्रमेय सिद्ध नहीं हो सकता । अध्यवसायरूप विकल्प जो मुख्य व्यवहार साधक है, तभी उत्पन्न होगा जब नामस्मृति हो, क्योंकि विकल्प नाम-जाति आदि से योजित ही होता है। इस से यह फलित होता है कि अखिल व्यवहारों में शब्दसम्बन्ध ही मुख्य भूमिका अदा करता है । क्षणिकल के विकल्प के विरह में जैसे क्षणिकत्वग्राही प्रत्यक्ष प्रतिक्षणपरिणामात्मक क्षणिकत्वरूप प्रमेय के स्वीकार में प्रमाणभूत नहीं होता, वैसे ही किसी भी बाह्य-अभ्यन्तर प्रमेय के लिये प्रत्यक्ष तब तक प्रमाणभूत नहीं माना जाता जब तक उस प्रत्यक्ष से उस प्रमेय के बारे में अध्यवसाय उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि प्रमाण के लक्षण में अविसंवाद का समावेश होता है, अत: संवादी अध्यवसाय के विना प्रत्यक्ष कैसे प्रमाण माना जा सकेगा ? यदि अध्यवसाय के विना भी प्रतिक्षणपरिणाम के ग्रहण में प्रत्यक्ष को प्रमाण माना लिया जायेगा, तो फिर हर किसी नित्यत्वादि अर्थ के ग्रहण में, अध्यवसाय के विना भी प्रत्यक्ष को प्रमाण मान सकेंगे, फलत: अनित्यत्वादि की सिद्धि के लिये अनुमानादि प्रमाणान्तर की खोज में किये जाने वाले प्रयत्न सब निरर्थक बन जायेंगे।
उपरोक्त रीति से, प्रमाणव्यवस्थासंपादन का यश नामस्मृति-विकल्प योजना को मिल जाने से, अर्थनयस्वीकृत अर्थप्रधानता निरस्त हो जाती है । फलित यह होता है कि प्रमाणादि एक एक व्यवहारों में सर्वत्र मुख्य कारण शब्द ही है।
* शब्दनय के मत से लिंगभेद से पर्यायभेद ★ ऋजुसूत्र नय की तुलना में शब्दनय अधिक शुद्ध यानी शुद्धतर पर्याय को अपने व्यवहार का विषय बनाता है । 'अधिक शुद्ध' का मतलब यह है कि ऋजुसूत्रनय की दृष्टि क्षणभेद तक सीमित रहती है जब कि यह शब्दनय लिंगभेद से भी पर्यायभेद मानता है । कैसे यह देखिये- जैसे हिन्दी भाषा में 'छरा' और 'छूरी' सामान्यत:
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