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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
किंच, वस्तुसंनिधानेऽपि तन्नामानुस्मृतिं विना तदाऽर्थस्यानुपलब्धाविष्यमाणायामर्थसंनिधिरक्षहग्जनं प्रत्यसमर्थ इति अभिधानस्मृतादु(?वु) पक्षीणशक्तित्वान कदाचनापीन्द्रियबुद्धिं जनयेत् संनिधानाऽवि - शेषात् । यदि चायं भवतां निर्बन्धः स्वाभिधानविशेषापेक्षमेव चक्षुरादिप्रतिपत्ति (:) स्वार्थमवगमयति तदाऽस्तंगतेयमिन्द्रियप्रभवाऽर्थाधिगतिः, तन्नामस्मृत्यादेरसंभवात् । तथाहि यत्रार्थे प्राक् शब्दप्रतिपत्तिरभूत् पुनस्तदर्थवीक्षणे तत्संकेतितशब्दस्मृतिर्भवेदिति युक्तियुक्तम् अन्यथाऽतिप्रसंगः स्यात् । न चेद् अनभिलापमर्थं प्रतिपत्ता पश्यति तदा तत्र दृष्टमभिलापमपि न स्मरेत्, अस्मरंध शब्दविशेषं न तत्र योजयेत्, अयोजयंश्च न तेन विशिष्टमर्थं प्रत्येतीत्यायातमान्ध्यमशेषस्य जगतः । ततः स्वाभिधानरहितस्य विषयस्य विषयिणं चक्षुरादिप्रत्ययं प्रति स्वत एवोपयोगित्वं सिद्धम् न तु तदभिधानानाम्, तदर्थसम्बन्धरहितानां पारम्पर्येणापि सामर्थ्याऽसम्भवात् ।
इत्यर्थनया व्यवस्थिताः ।
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त्याग करके शब्द की ग्राहिका होती तब तो अर्थदर्शन के विलोप की विपदा प्रसक्त होगी । शब्द न तो इन्द्रियसम्बद्ध अर्थ में निवास करते हैं, न तो शब्द अर्थतादात्म्यशाली होते हैं, इसीलिये अर्थ के प्रतिभासकाल में नियमतः शब्द का प्रतिभास होने को अवकाश ही नहीं, तब 'प्रत्यक्ष बुद्धि शब्दसंसृष्ट ही होती है- शब्दानुविद्ध ही होती है' ऐसा कौन कह सकता है ?
★ शब्दविनिर्मुक्त अर्थावबोध का समर्थन ★
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यदि शब्दवादी ऐसा मानते हो कि 'अर्थ का संनिधान रहने पर भी जब तक अर्थ की संज्ञा का स्मरण नहीं होता तब तक इन्द्रिय से अर्थोपलम्भ नहीं होता ।' तब तो इस का मतलब यह हुआ कि अर्थसंनिधान प्रत्यक्षबुद्धि के उत्पादन में असमर्थ है, क्योंकि वह तो सिर्फ अर्थ की संज्ञा का स्मरण कराने में ही क्षीणशक्तिक हो जाता है, अतः अर्थ के संनिधान की प्रत्यक्षबुद्धि - उत्पादन में कोई विशेषता न होने से इन्द्रियबुद्धि उत्पन्न ही नहीं हो पायेगी । यदि कहें कि 'ऐसा नहीं होगा, क्योंकि हम मानते हैं कि अर्थसंनिधान संज्ञारूप विशेषण को सापेक्ष रह कर चाक्षुषबोध उत्पन्न करता है और उससे उस संज्ञा (शब्द) के अर्थ का अवबोध होता है ।' - तो इस मान्यता को स्वीकारने पर इन्द्रियजन्य अर्थाधिगम की कथा ही समाप्त हो जायेगी, क्योंकि ऐसे तो संज्ञास्मरण भी संभावित नहीं होगा। कैसे यह देखिये - जिस अर्थ को लक्षित करके पहले शब्दसंज्ञा का भान हो चुका हो, पुनः उस अर्थ का दर्शन होने के बाद ही उस में संकेतित शब्द की स्मृति होना न्याययुक्त है। अन्यथा यत्- किंचित् अर्थ के दर्शन से यत् किंचित् नाम की स्मृति हो जायेगी । शब्द से अलिप्त अर्थ का दर्शन यदि दृष्टा को पहले नहीं होगा तो उस अर्थ के पूर्वज्ञात नाम का स्मरण भी नहीं हो सकेगा, नामस्मरण न होने पर उस विशिष्ट नाम का अपने अर्थ के साथ संयोजन भी कोई दृष्टा नहीं कर पायेगा । संयोजन के विरह में उस नाम से विशेषित अर्थ का अधिगम नहीं हो पायेगा, फलतः सारा जगत् ज्ञानशून्य अन्धा बना रहेगा ।
इस प्रकार, अपने नाम के सम्बन्धविरह में भी विषयभूत अर्थ अपने विषयिभूत चाक्षुषज्ञान के लिये स्वतः उपयोगि बनता है यह तो सिद्ध हो गया, किन्तु उनके नाम, अर्थसम्बन्ध के विरह में प्रमाबोध में उपयोगी नहीं होते, क्योंकि उन में परम्परया भी वह सामर्थ्य नहीं है ।
उपरोक्त तरीके से, चारों अर्थनय की दृष्टि में अर्थ ही प्रमाबोध का मुख्य अंग है, न कि शब्द- यह
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