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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
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'अर्थेन घटयत्येनां नहि मुक्त्वार्थरूपताम्' [प्र. वा. २-३०५ पूर्वार्धः] 'तस्मात् प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता' । [प्र. वा. २-३०६ पूर्वाधः] इत्यादिवचनात् तदाकारानुविधायिनी तदध्यवसायेन च तत्राऽविसंवादात् संवित् प्रमाणत्वेन गीयते । अध्यक्षधीचाऽशब्दमर्थमात्मन्याधत्ते अन्यथाऽर्थदर्शनप्रच्युतिप्रसंगात् । न ह्यक्षगोचरेऽर्थे शब्दाः सन्ति तदात्मानो वा येन तस्मिन् प्रतिभासमानेऽपि नियमेन प्रतिभासेरनिति कथं तत्संसृष्टा अध्यक्षधीभवेत् ? मानेंगे तो उपकार कादाचित्क (=क्षणिक) होने से तदभिन्न भाव नित्य न रहकर क्षणिक बन जायेगा । यदि उस उपकार को भाव से भिन्न मानेंगे तो भाव और उपकार का कोई सम्बन्ध मेल नहीं खायेगा। सम्बन्ध का मेल बैठाने के लिये यदि नये नये उपकारों एवं उनके सम्बन्धों की कल्पना करेंगे तो उसका अन्त ही नहीं आयेगा।
नित्यभाव में एकसाथ (एक समय में) सर्व अर्थक्रिया का कारित्व भी मेल नहीं खायेगा, क्योंकि तथाविध स्वभावतो दूसरे क्षण में भी जारी रहेगा, अत: दूसरे क्षण में भी पुन: सर्वकार्यकारित्व, तीसरे क्षण में भी.. इस प्रकार पुन: पुनः क्षणक्षण में सर्वकार्यकारित्व की आपत्ति होगी। नित्य भाव के लिये क्रम-अक्रम इन दो विकल्प मों के अलावा तीसरा कोई अर्थक्रियाकर्तत्व का प्रकार सम्भव नहीं है। सत्त्व का लक्षण तो अर्थक्रियाकारित्व ही है, किन्तु एक भी विकल्प से वह नित्य भाव में घट नहीं सकता इसलिये नित्य भाव की सत्ता संभव नहीं है । ऋजुसूत्र के मत में ध्वंस का कोई हेतु नहीं होता, वह स्वाभाविक होता है । प्रत्येक भाव अपने आप क्षणभंगुर होते हैं । ऋजुसूत्र नय पर्यायावलम्बी होता है, पर्याय क्षण-क्षण बदलते रहते हैं इसलिये ऋजुसूत्रमतवादी क्षणिकवादी है। कहा है- "अजुसूत्र नय भूत-भावि आकारवाले काल के स्पर्श से अलिप्त सिर्फ वर्तमान के रूपमें वस्तुका सूत्रण करता है।"
★ अर्थनयचतुष्क का अभिप्राय★ नैगम-संग्रह-व्यवहार ये तीन द्रव्यार्थिक नय हैं, शेष चार पर्यायार्थिक । द्रव्य - पर्याय को लक्ष्य में रख कर जैसे यह विभाग है वैसे ही शब्द और अर्थ को लक्ष्य में रख कर ऐसा भी विभाग है कि नैगम-संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्र ये चार अर्थग्राही होने से अर्थनय हैं, और बाकी के तीन शब्दनय हैं।
___ अर्थनयदर्शन की और से ऋजुसूत्र कहता है कि सामान्यत: यद्यपि यह कहा जाता है कि शब्द और अर्थ दोनों प्रमाण-प्रमेयभाव के स्थापक निमित्त हैं किन्तु वास्तव में, साक्षात् अथवा परम्परा से जो प्रमाण का कारण होता है वही प्रमाण में अपनी आकारमुद्रा का अर्पण करने के कारण उसका विषय बनता है। कहा है, 'अन्वय-व्यतिरेक सहचार का अनुसरण न करे वह कारण नहीं होता और जो (प्रमा का) कारण नहीं होता वह (उसका) विषय नहीं बनता ।' तथा प्रमाणवार्त्तिक में भी कहा है- 'अर्थसरूपता को छोड कर और कोई इसका (प्रमाणफलभूत अधिगति) का अर्थ के साथ (यह नील की अधिगति है, यह पीत की - इस प्रकार) योजयिता (यानी व्यवस्थापक) नहीं है।' - 'अत: प्रमेयाधिगति का प्रमाण (यानी साधन) मेयरूपता (यानी अर्थरूपता) ही है ( न कि शब्द)।' - इन वचनों से यह फलित होता है कि शब्दाकार का नहीं किन्तु अर्थाकार का अनुविधान करनेवाला, अर्थ के अध्यवसाय से अर्थ का अविसंवादी ऐसा संवेदन प्रमाण माना जाता है। प्रत्यक्ष बुद्धि तो सीधे ही शब्द का त्याग करके अर्थ को ही अपनी गोद में ले लेती है। यदि वह अर्थ का
* 'प्रमाणं' पदस्थाने 'साधनं' इतिपदं प्रमाणवार्तिके।
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