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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् ३८६ वस्तु कल्पयितुं युक्तम् अन्यथाकल्पनाऽसम्भवादिति संग्रह- नैगमाभ्युपगतवस्तुविवेकाल्लोकप्रतीतपथानुसारेण प्रतिपत्तिगौरवपरिहारेण प्रमाण- प्रमेय प्रमितिप्रतिपादनं व्यवहारप्रसिद्ध्यर्थं परीक्षकैः समाश्रितमिति व्यवहारनयाभिप्रायः । ततः स्थितं नैगम संग्रह - व्यवहाराणां द्रव्यास्तिकनयप्रभेदत्वम् । विषयभेदश्चैषां प्रतिपादितःशुद्धं द्रव्यं समाश्रित्य संग्रहस्तदशुद्धितः । नैगम-व्यवहारौ स्तां शेषाः पर्यायमाश्रिताः ॥ [ ] तदुक्तम्- [ 1 अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते निगमो नयः ॥ सद्रूपतानतिक्रान्त-स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्वं संगृह्णन् संग्रहो मतः ॥ व्यवहारस्तु तामेव प्रतिवस्तुव्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वात् व्यवहारयति देहिनः ॥ इति ॥ पर्यायनयभेदाः ऋजुसूत्रादयः तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्यात् शुद्धपर्यायसंश्रिता । नश्वरस्यैव भावस्य भावात् स्थितिवियोगतः ॥ ★ प्रत्यक्षसिद्ध भेदग्राही व्यवहारनय★ व्यवहारनय का अभिप्राय : :- समस्त भेद का छेद करके अद्वितीय एक तत्त्व के स्वीकार करने में प्रत्यक्षसिद्ध भेद व्यवहार का विरोध स्पष्ट ही प्रतीत होता है, क्योंकि व्यवहार सर्वत्र भेदमूलक ही चलता है यह प्रत्यक्ष दिखता है । अतः दृष्ट के अनुसार कल्पना करनी चाहिये । कारक और ज्ञापक इस प्रकार सर्वत्र भेद प्रसिद्ध हैं इसलिये वैसी कल्पना के अनुरूप व्यवहार आचरता हुआ व्यवहारनय प्रवृत्त होता है। उसके मत में, कारण सदा के लिये नित्य नहीं होता, कार्य भी सदा के लिये नित्य नहीं होता, एवं कार्य का एकान्ततः हर किसी प्रकार से विनाश भी नहीं होता। ऐसे ये कार्य-कारणों के समुदायात्मक पूरा जगत् जैसा आज वास्तविक भेदनियम का अनुसरण कर रहा है वैसा भूत भविष्य में भी करता था करता रहेगा, अतः 'यह जगत् ऐसा कभी नहीं था या नहीं होगा' इस कथन को अवकाश ही नहीं है। अनादि काल से यह भेदव्यवहार प्रवर्त्तमान है, कोई उसका आद्य प्रवर्त्तक नहीं है, अन्यथा उस प्रवर्त्तक के प्रवर्त्तक की खोज में अनवस्था चलेगी। अनादि अनंतकाल यह व्यवहार जारी रहता है इसलिये व्यवहारशून्य जगत् की कल्पना निरवकाश है । अभेदपक्ष में कोई प्रमाण नहीं है, और जिस पक्ष में कोई प्रमाण न हो उसका स्वीकार उचित नहीं है, क्योंकि प्रमाणबाह्य पक्ष का स्वीकार करने पर अदृष्ट- अश्रुत- अप्रसिद्ध पदार्थ की कल्पना का दोष प्रसक्त होता है । कदाचित् अदृष्ट पदार्थ की कल्पना अन्यथानुपपत्ति के बल पर की जाय तो वह भी दृष्ट पदार्थ के अनुरूप ही करना चाहिये, उसके बदले विपरीत कल्पना करना सम्भवोचित नहीं । उक्त रीति से, संग्रह और नैगमनय सम्मत वस्तु का विवेक करके, यानी अपनी व्यवहारसंगतिकारक बुद्धि से उसका परीक्षण करके, व्यवहारातीत कल्पनाओं को छोड़ कर, लोकप्रतीतिरूप मार्ग का अनुसरण करते हुओ, व्यवहारविरुद्ध कल्पनाओं के आडम्बर को छोड कर व्यवहारानुकुल प्रमाण- प्रमेय और प्रमिति का व्युत्पादन, व्यवहारों की प्रसिद्धि के लिये यानी उचित ढंग से उनके प्रवर्त्तन के लिये परीक्षकों द्वारा किया जाता है- यह व्यवहार नय का आशय है । यद्यपि नैगम-व्यवहार भेदग्राहक हैं फिर भी तीनों नय द्रव्य को दृष्टिगोचर रख कर प्रवृत्त होते हैं, इसलिये नैगम- संग्रह और व्यवहार ये तीनों द्रव्यास्तिकनय के उपभेद हैं यह तथ्य फलित होता है। उन में निम्नरीति से विषयभेद माना गया है - ★ संग्रहादि नयों में विषयभेद ★ " संग्रहनय शुद्ध द्रव्य का आश्रय करता है, अशुद्ध द्रव्य का आसरा ले कर नैगम और व्यवहार नय Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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