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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
____३८५ भेद एव । अपरैस्तु प्रधानकारणिकं जगद् अभ्युपगतम्, तत्रापि सेश्वर-निरीश्वरभेदाद् भेदाऽभ्युपगमः । कैश्चित् स्वभावकाल-यहच्छादिवादाः समाश्रिताः, तेष्वपि सापेक्षत्वाऽनपेक्षत्वाभ्युपगमाद् भेदव्यवस्था अभ्युपगतैव । तथा, कारणं नित्यम् कार्यमनित्यमित्यपि वैतं कैश्चिदभ्युपगतम्, तत्रापि कार्य स्वरूपं नियमेन त्यजति नवेत्ययमपि भेदाभ्युपगमः । एवं मूतैरेव मूर्तमारभ्यते, मूतैर्मूर्तम्, मूत्रमूर्तमित्यायनेकधाप्रतिपवभिप्रायतोऽनेकधानिगमनागमोऽनेकभेदः ।
[व्यवहारनयाभिप्रायः ] व्यवहारनयस्तु - अपास्तसमस्तभेदमेकमभ्युपगच्छतोऽध्यक्षीकृतभेदनिबन्धनव्यवहारविरोधप्रसक्तेः कारकज्ञापकभेदपरिकल्पनानुरोधेन व्यवहारमारचयन् प्रवर्तते इति कारणस्यापि न सर्वदा नित्यत्वम् कार्यस्यापि न सर्वदा नित्यत्वम्, कार्यस्यापि नैकान्ततः प्रक्षय इति । ततश्च 'न कदाचिदनीदृशं जगत्[ ] इति प्रवृत्तोऽयं व्यवहारो न केनापि प्रवर्त्यते अन्यथा प्रवर्तकानवस्थाप्रसक्तिः । ततो न व्यवहारशून्यं जगत् । न च प्रमाणाऽविषयीकृतः पक्षोऽभ्युपगंतुं युक्तः अदृष्टपरिकल्पनाप्रसक्तेः, दृष्टानुरोधेन ह्यदृष्टमपि ही है' (आत्माद्वैत) इत्यादि....। इसी अभिप्राय का अवलम्ब कर के गीता में कहा गया है – “शुद्ध-बुद्धस्वभाव ब्रह्म यही जिस का ऊर्ध्व मूल है, अविद्या जन्य प्रपंचविलास यह जिस की अधोगत शाखाएँ है और वेदमन्त्र जिस के पर्ण हैं - ऐसे पुरुषविशेष का ज्ञाता जो है वही वेदज्ञ है।"
★ नैगम के विविध अभिप्राय के उदाहरणस्थल* इस नय में पुरुष के लिये भी विविध अभिप्राय हैं । कोई अद्वैत एक ही पुरुष मानते हैं, कोई अनेक, इस प्रकार ये दो अभिप्राय हो गये। अनेक माननेवाले में कोई उसे कर्ता मानते हैं कोई अकर्ता । कर्ता मानने वाले भी कोई सर्वगत व्यापक मानते हैं और कोई अव्यापक । अव्यापक मानने वाले भी कोई पुरुष को शरीरपरिमाणवाला मानते हैं, कोई देह से न्यूनाधिक परिमाण वाला मानते हैं । शरीर से न्यूनाधिक परिमाण माननेवाले में भी कोई आत्मा को मूर्त मानते हैं और कोई अमूर्त । अन्य कोई सांख्यवादी ऐसा भी मानते हैं कि जगत् का मूल कारण प्रधानतत्त्व है । सांख्यवादीयों में भी दो भेद हैं, ईश्वर को अपने कर्मों की अपेक्षा वाले मानते हैं
और कोई मानते हैं कि ईश्वरप्रवृत्ति में कर्मापेक्षा नहीं होती । कुछ ऐसे भी वादी हैं जो जगत् का एक मात्र कारण 'स्वभाव' है ऐसा मानते हैं, कोई एक मात्र काल को, कोई यहच्छा यानी नियति को, तो कोई पुरुषकार आदि को ही जगत्-कारण मानते हैं। उन में भी कोई कर्म और पुरुषार्थ अन्योन्य सापेक्षकारणता मानते हैं तो कोई निरपेक्ष । कोई द्वैतवादी ऐसा मानते हैं कि कारण (जैसे कि प्रधान) नित्य होता है और कार्य (भूतादि) अनित्य होता है। अनित्यकार्यवादियों में भी कोई मानते हैं कि कार्य नष्ट होता हुआ सर्वथा अपने स्वरूप का अवश्यमेव त्याग करता है, तो कोई कहते हैं नहीं, सर्वथा अवश्यमेव त्याग नहीं करता (कुछ अंश से स्थायि भी रहता है ।) आरम्भवाद में कोई कहते हैं मूर्त की उत्पत्ति मूर्त पदार्थ से ही होती है। दूसरे कहते हैं - मूर्त की उत्पत्ति मूर्त पदार्थ से ही होती है - इतना ठीक है (लेकिन मूर्त से ही होती है ऐसा नहीं) और कोई कहते हैं मूर्त पदार्थों से अमूर्त की उत्पत्ति होती है । इस ढंग से देखें तो अपने अपने विभिन्न अभिप्राय के मुताबिक ज्ञाता लोग तरह तरह के निगमन = निश्चय कर लेते हैं अत: नैगमनय की धारा अनेक भेदों से प्रवृत्त होती है।
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