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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम्
[ नयोपभेदनिरूपणम् ] [ संग्रह - नैगमनयवक्तव्यता ]
अत्र च नैगम-संग्रह-व्यवहारलक्षणास्त्रयो नयाः शुद्धयशुद्धिभ्यां द्रव्यास्तिकमतमाश्रिताः, ऋजुसूत्र - शब्द- समभिरूढ एवम्भूतास्तु शुद्धितारतम्यतः पर्यायनयभेदाः । तथाहि - संग्रहमतं तावत् प्रदर्शितमेव (२६९-५) । येषां तु मतेन नैगमनयस्य सद्भावः तैस्तस्य स्वरूपमेवं वर्णितम् रायन्तरोपलब्धं नित्यत्वमनित्यत्वं च नयतीति निगमव्यवस्थाभ्युपगमपरो नैगमनयः । निगमो हि नित्यानित्य- सदसत्कृतकाऽकृतकस्वरूपेषु भावेष्वपास्तसांकर्यस्वभावः सर्वथैव धर्म - धर्मिभेदेन सम्पद्यत इति । स पुनर्नंगमोऽनेकधा व्यवस्थितः प्रतिपत्रभिप्रायवान्नयव्यवस्थानात् । प्रतिपत्तारथ नानाभिप्रायाः । यतः केचिदाहुः 'पुरुष एवेदं सर्वम्' [ श्वेताश्व० ३ - १५] इत्यादि, यदाश्रित्योक्तम्- [ गीता १५ - १ ]
“ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ " पुरुषोऽप्येकत्व-नानात्वभेदात् कैचिदभ्युपगतो द्वेधा, नानात्वेपि तस्य कर्तृत्वाऽकर्तृत्वभेदोऽपरैराश्रितः, कर्तृत्वेऽपि सर्वगततेतरभेदः असर्वगतत्वेऽपि शरीरव्याप्त्यव्याप्तिभ्यां भेदः, अव्यापित्वेपि मूर्त्तेतरविकल्पाद् ★ नय के प्रभेद : संग्रहादिनय★
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मूल द्रव्यास्तिक नय की शुद्धि - अशुद्धिभेद से तीन धाराएं प्रवाहित होती है । शुद्धि का तात्पर्य है भेददृष्टि का अभाव । संग्रहनय शुद्धि को अपना कर प्रवृत्त होता है, जब कि नैगम और व्यवहार तरतमभाव से भेददृष्टि रूप अशुद्धि रख कर प्रवृत्त होते हैं ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूद और एवंभूत ये चार नय शुद्धि की तरतमता से सूक्ष्म-सूक्ष्मतर भेददृष्टि रख कर प्रवृत्त होते हैं और वे पर्यायास्तिकनय के भेद हैं। अभेददृष्टि का अभाव यही उसकी शुद्धि है । इन में से संग्रहनय का मत शुद्ध द्रव्यास्तिकनय के विवेचन में दिखा दिया है। वे दोनों एक ही है ।
★ नैगमनय वक्तव्यता ★
यद्यपि आचार्य श्री सिद्धसेनसूरिजी नैगम को स्वतन्त्र नयभेद नहीं मानते हैं फिर भी अन्य आचार्यों को वह मान्य है । उन के मत में नैगमनय का स्वरूप इस प्रकार दिखाया गया है- भिन्न भिन्न राशियों में, जैसे विद्युत्, ज्वाला, शब्द आदि के राशि में अनित्यत्व को मान्य करता है, दूसरी ओर आकाश आत्मा आदि राशियों में नित्यत्व मान्य करता है इस प्रकार असांकर्य का दृष्टिकोण रखनेवाला नय नैगम कहा जाता है । निगम का मतलब है जनसमुदाय के साथ गाँव-नगर में वास करने वाले मानव । ये लोग भिन्न भिन्न अवसर में भाव hat भिन्न भिन्न रूप से प्रस्तुत करते हैं । पण्य खरीदते समय उनकी दृष्टि अलग होती है और विक्रय के काल में कुछ अलग ही । ऐसे प्रसिद्ध शास्त्रीय तत्त्वों लिये भी किसी चीज को वह नित्य ही समझ लेता है, किसी को अनित्य । किसी को सत् और किसी को असत् । किसी को अकृतक यानी प्राकृतिक और किसी को मानवादिनिर्मित यानी कृतक । इस प्रकार नैगमनयवादी असंकीर्णस्वभावांकित वस्तु का स्वीकार करता है । वह धर्म को भी सर्वथा भिन्न मानता है और धर्मि को भी । इस प्रकार उन नागरिकों के अवसरानुकुल भिन्न भिन्न अभिप्राय प्रवृत्त होते हैं इस लिये नैगमनय भी तरह तरह के (विविध) अभिप्राय वाला होता है क्योंकि जनसामान्य का अभिप्राय भी तरह तरह का होता है । जैसे, किसीने ऐसा कहा है कि 'यह सब कुछ पुरुष
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