________________
३७८
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सोऽभिलषितार्थसिद्धिः किमिति न स्यात् ? न च तत्कारणस्य धर्मस्याभावानासाविति वक्तव्यम्, यतो धर्मस्यापि प्रकृतिकार्यतया तदव्यतिरेकात् तद्वत् सदैव भाव इति सर्वदा सर्वस्याभिलषितफलप्राप्तिप्रसक्तिः । अपि च, यदि अभिलषितं फलं प्रकृतिरुपनयति तदा नानिष्टं प्रयच्छेत्, न हि कश्चिदनिष्टमभिलपति ।
किंच, अपनयतु नाम प्रकृतिः फलम् तथापि भोक्तृत्वं पुंसोऽयुक्तम् अविकारित्वात् । न हि सुख-दुःखादिना आहादपरितापादिरूपं विकारमुपनीयमानस्य भोक्तृत्वमस्याकाशवत् संगतम् । न च प्रकृतिरस्योपकारिणी अविकृतात्मन्युपकारस्य कर्तुमशक्यत्वात् । विकारित्वे वा नित्यत्वहानिप्रसक्तिः अतादवस्थ्यस्याऽनित्यत्वलक्षणत्वात् तस्यापि विकारिण्यवश्यंभावित्वात् । अथ न विकारापत्त्या आत्मनो भोमें कहा है -
"महदादि के दर्शन के लिये पुरुष को प्रधान के साथ संयोग अपेक्षित है, और कैवल्य (मोक्ष) प्राप्ति के लिये प्रकृति का पुरुष के साथ संयोग अपेक्षित है, इस प्रकार पंगु-अन्ध न्याय से दोनों का संयोग होता है और संयोग से सृष्टि होती है ।"
[पुरुष में दर्शनशक्ति है किन्तु क्रियाशक्ति नहीं है, प्रकृति में क्रियाशक्ति है किन्तु दर्शनशक्ति नहीं है, अत: पंगु-अन्ध की तरह दोनों मिलते हैं तब भोग एवं मुक्ति होती है]
____पर्यायवादी : यह सब गलत है । कर्म किये विना ही यदि पुरुष के वांछित फल का प्रकृति सम्पादन करती है तब तो हर किसी पुरुष की सदा के लिये वांछित फल सिद्धि क्यों नहीं होती रहेगी ? यदि कहें कि - ‘वांछितफल के कारणभूत धर्म के अभाव में वैसा हो नहीं सकता' - तो यह उचित नहीं है क्योंकि धर्म भी आखिर प्रकृति का ही कार्य होने से प्रकृति से अभिन्न है अत: प्रकृति की तरह उस का भी सदा अस्तित्व है ही अतः सभी पुरुषों को सदा-सर्वदा वांछित फल की प्राप्ति होने में कोई बाधक नहीं रहेगा। दूसरी बात यह है कि प्रकृति यदि वांछित फल का ही सम्पादन करती रहेगी तो पुरुष को कभी अनिष्ट का आपादन होगा ही नहीं, क्योंकि किसी भी पुरुष का अपना वांछित सदा इष्टविषयक ही होता है, अनिष्ट विषयक कभी नहीं होता।
★ प्रतिबिम्बन्याय से भोक्तृत्व आत्मा में असंगत ★ सांख्यसिद्धान्त के अनुसार कदाचित् प्रकृति द्वारा फलसंपादन कार्य को मान्य रखा जाय तो भी पुरुष में भोक्तापन युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि पुरुष अविकारी है । सुख-दुःखादि के द्वारा जिस में आह्वाद या परिताप रूप कोई विकार ही नहीं निपजाया जा सकता उसमें भोक्तृत्व, निर्विकार आकाश की तरह युक्तिसंगत नहीं है । तथा प्रकृति आत्मा की उपकारक भी नहीं हो सकती क्योंकि आत्मा निर्विकार होने से उसके ऊपर उपकार करना सम्भव नहीं है । उपकार मानेंगे तो आत्मा में विकारिता प्राप्त होने से उसके नित्यत्व का भंग हो जायेगा। 'तदवस्थ न रहना' यही अनित्यत्व का लक्षण है, उपकार के जरिये आत्मा में विकारिता प्राप्त होने पर वह अवश्यमेव तदवस्थ नहीं रह पायेगा ।
यदि कहें कि - "आत्मा में विकार-प्राप्ति स्वीकार कर हम भोक्तापन नहीं दिखाते - तो कैसे ! सुनिये - बुद्धि से अध्यवसित यानी सम्पादित अर्थ का शुद्ध स्फटिकवत् निर्मल आत्मा में प्रतिबिम्बोदय के न्याय से
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org