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________________ द्वितीयः खण्डः-का०-३ न चायमसिद्धो हेतुरिति प्रतिपादितम् । कर्तृत्वाभावात् भोक्तृत्वमपि तस्य न युक्तम् । न ह्यकृतस्य कर्मणः फलं कश्चिदुपभुंक्ते अकृताभ्यागमप्रसंगात् । न च पुरुषस्य कर्माऽकर्तृत्वेपि प्रकृतिरस्याभिलषितमर्थमुपनयतीत्यसौ भोक्ता भवति, यतो नासावष्यचेतना सती शुभाशुभकर्मणां की युक्ता येनासौ कर्मफलं पुरुषस्य सम्पादयेत् । __ अथ यथा पङ्ग्वन्धयोः परस्परसम्बन्धात् प्रवृत्तिस्तथा महदादि लिंगं चेतनपुरुषसम्बन्धाच्चेतनावदिव धर्मादिषु कार्येष्वध्यवसायं करोतीत्यदोष एवायम् । उक्तं च, [सांख्य का० २१] पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थ तथा प्रधानस्य । पङ्ग्बन्धवदुभयोरभिसंयोगात् तत्कृतः सर्गः ॥ असदेतत् यतो यदि प्रकृतिरकृतस्यापि कर्मणः फलमभिलषितमुपनयति तदा सर्वदा सर्वस्य पुंआत्मा, परस्पर अभिन्न होने पर दिदृक्षा आदि के उत्पाद के साथ आत्मा का भी उत्पाद होगा, क्योंकि दिदृक्षादि आत्मा से अलग नहीं है । यदि वे परस्पर भिन्न हैं, तब तो 'आत्मा के दिदृक्षादि' ऐसा सम्बन्ध ही जमेगा नहीं, क्योंकि सम्बन्ध उपकारमूलक होता है जो यहाँ है नहीं । यदि उपकार है तो वह अपने सम्बन्धि से भित्र है या अभिन्न- इन विकल्पों का सामना करना होगा । भिन्न होगा तो पुन: सम्बन्ध को घटाने के लिये नये भिन्न उपकार की कल्पना करो, उस के सम्बन्ध के लिये भी नूतन उपकार की कल्पना- ऐसी अनवस्था चलेगी। यदि अभिन्न होगा तो उस की उत्पत्ति के साथ आत्मा की भी उत्पत्ति प्रसक्त होगी । फलत: दिदृक्षादि का सद्भाव ही सिद्ध न होने से आत्मा में भोक्तापन नहीं घट सकेगा। * कर्तृत्व के विना भोक्तृत्व का असम्भव ★ यहाँ ऐसा अनुमानप्रयोग कर सकते हैं - 'यह उस का है' ऐसी स्थापना करने के लिये आवश्यक निमित्त जिस वस्तु में नहीं है, बुद्धिमानों के द्वारा उस वस्तु के लिये वैसी स्थापना नहीं हो सकती, जैसे आकाश में मूर्त्तत्व की 'आकाश का मूर्तत्व' ऐसी स्थापना करने के लिये कोई दिदृक्षादि आवश्यक निमित्त नहीं है, इस लिये 'पुरुष का भोक्तृत्व' ऐसी स्थापना नहीं हो सकती । यहाँ कारणानुपलब्धि हेतुस्वरूप है । कारण यानी निमित्त के न होने से कार्य का अभाव सिद्ध किया गया है । यहाँ प्रयोग में हेतु जो दिदृक्षादि निमित्त का अभाव है वह कैसे है यह तो अभी ही बताया जा चुका है, इस लिये हेतु असिद्ध नहीं है । आत्मा में कर्तृत्व न मानने वाले के मत में भोक्तृत्व भी घट नहीं सकता । जिसने कोई कर्म नहीं किया वह कभी फलोपभोग नहीं करता, अन्यथा अकृताभ्यागम का दोष होगा । अकृत यानी जो अनुत्पादित अथवा अनुत्पन्न है उस का अभ्यागम यानी यकायक अस्तित्व धारण कर लेना - यह दोषरूप है। यदि ऐसा कहें कि - "पत्नी अपने पति की इच्छापूर्ति के लिये वांछित अर्थ जलादि, बिना कहे सामने लाकर रख देती है, वैसे ही पुरुष कर्म का कर्ता न होने पर भी उस के वांछित अर्थ को प्रकृति उस के सामने धर देती है - तब वह उस का उपभोग करता है" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जड होने से प्रकृति भी शुभ-अशुभ कर्मों की कारिका बन नहीं सकती जिस से कि वह पुरुष के लिये कर्मफल का सम्पादन करने लग जाय । ★ अन्ध-पंगुन्याय से प्रवृत्ति कर्म के विना अघटित ★ सांख्य : यद्यपि प्रकृति और उस के लिंगभूत महदादि विकार सब जड है, किन्तु पंगु और अन्ध की तरह परस्पर मिल कर प्रवृत्ति करते हैं । चेतन आत्मा के संसर्ग से महदादि भी औपाधिक चैतन्य प्राप्त कर के धर्मादि कार्यों में अध्यवसाय करने लग जाते हैं - अत: जड होने पर भी कोई दोष नहीं है । सांख्यकारिका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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