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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अत्र च 'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्' इत्यादि वदता 'चैतन्यं नित्यैकरूपमिति प्रतिज्ञातम् तस्य नित्यैकरूपात् पुरुषादव्यतिरिक्तत्वात् । अध्यक्षविरुद्धं चेदम् रूपादिसंविदां स्फुटं स्वसंवित्त्या भिन्नस्वरूपावगमात् । एकरूपत्वे त्वात्मनोऽनेकविधार्थस्य भोक्तृत्वाभ्युपगमो विरुद्ध आसज्येत अभोक्त्रवस्थाव्यतिरिक्तत्वात् भोक्त्रवस्थायाः । न च दिदृक्षादियोगादविरोधः, दिदृक्षा-शुश्रूषादीनां परस्परतोऽभिन्नानामुत्पादैरात्मनोऽप्युत्पादप्रसंगः, तासां तदव्यतिरेकात्, व्यतिरेके च 'तस्य ताः' इति सम्बन्धानुपपत्तिः, उपकारस्य तनिबन्धनस्याभावात्; भावे वा तत्रापि भेदाभेदविकल्पाभ्यामनवस्था-तदुत्पत्तिप्रसंगतो दिदृक्षाद्यभावान भोक्तृत्वम् । प्रयोगः - 'यस्य यद्भावव्यवस्थानिबन्धनं नास्ति नासौ प्रेक्षावता तद्भावेन व्यवस्थाप्यः यथा आकाशं मूर्त्तत्वेन । नास्ति च भोक्तृत्वव्यवस्थानिबन्धनं पुरुषस्य दिदृक्षादि' - इति कारणानुपलब्धिः । शक्ति और किस की उत्पादन क्रिया होगी ? वह तभी घट सकती है जब नित्य एक रूप कारण के बदले अनित्य अनेक कारणों को मान लिया जाय । इसी तरह पहले यह भी बता दिया है कि कार्य-कारणभाव भी नित्य एक रूप प्रधान के न होने पर ही घट सकता है । नित्य पदार्थ में क्रमश: अथवा एक साथ अर्थक्रियाकारित्व घट नहीं सकता, एवं एक ही प्रधान के होने पर अभेद वाद में कौन कारण और कौन कार्य होगा ? नित्य एक रूप प्रधान की हस्ती माने तो जगत् में वैविध्य भी नहीं घटेगा, क्योंकि जैसे प्रधान का स्वरूप प्रधानमय होने से एकरूप ही होता है वैसे ही अभेदवाद में समुचा जगत् भी प्रधानमय होने से एकरूप बन बैठेगा । फिर तो 'कार्य' जैसा कुछ रहा ही नहीं, तब अविभाग यानी लय की तो कथा ही कैसे बच पायेगी ? निष्कर्ष, किसी भी हेतु के द्वारा प्रधान की सिद्धि की आशा रखना व्यर्थ है ।
*नित्य चैतन्यवाद में प्रत्यक्षविरोध* सांख्यवादियों की यह कल्पना है - "आत्मा का स्वरूप 'चैतन्य' है और वह प्रधान के विकार स्वरूप बद्धि से सर्वथा अलग ही चीज है। आगम में कहा है कि 'चैतन्य पुरुष का स्वरूप है । वह प्रधान के द्वारा उपस्थापित शुभाशुभकर्मफल का भोक्ता अवश्य है किन्तु कर्ता नहीं है । सारे जगत् के परिणामों की कर्ता-हर्ता प्रकृति ही है । आत्मसिद्धि में यह प्रमाण है - जो चीज संघातरूप (यानी गुणसमुदाय रूप) है वह अन्य के लिये होती है, जैसे शय्या, आसन, शरीरादि । नेत्रादि इन्द्रिय भी संघातरूप है इस लिये अन्यार्थक होनी चाहिये । वह जो अन्य है वही आत्मा है, और तो कोई हो नहीं सकता, इसलिये यह अर्थत: सिद्ध होता है। [सांख्यमत में सत्त्व-रजस्-तमस् तीन गुणों के समुदायरूप जो प्रधानादि चौवीस जड तत्त्व हैं उन को संघात कहा गया है ।]"
सांख्यवादियों की इस कल्पना को दिखाने वाले विद्वान् ने 'चैतन्य पुरुष का स्वरूप है' यह कहते हुये इस बात का निर्विवाद स्वीकार कर लिया है कि चैतन्य नित्य एवं सदा के लिये एक रूप है, क्योंकि सर्वथा नित्य एक रूप आत्मा से वह अपृथग - अभित्र है । सांख्यो की इस मान्यता में प्रत्यक्ष ही विरोध है, क्योंकि आत्मा के संवेदन से सर्वथा भिन्न रूप में ही रूपादिसंवेदनों का अनुभव होता है । तथा आत्मा यदि सदा के लिये एकरूप रहता है तो उस के साथ विविधअर्थभोग का विरोध प्रसक्त होगा, क्योंकि भोक्तृत्व-अवस्था अभोक्तृत्व-अवस्था से अलग होती है । यदि कहें कि - 'आत्मा तो सदा एकरूप है किन्तु दिदृक्षा आदि के योग से उस में भोक्तृत्व का उपचार होता है' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि दिदृक्षा अथवा शुश्रूषा और
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