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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
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चोपपद्यमानत्वात् । तथाहि - प्रधानं यदि व्यक्तस्य कारणं भवेत् तदा सर्वमेव विश्वं तत्स्वरूपवत् तदात्मकत्वादेकमेव द्रव्यं स्यात्, ततश्च 'बुद्धिरेका एकोऽहंकारः पञ्च तन्मात्राणि' इत्यादिकः परिमाणविभागोऽसंगतः स्यादिति निष्परिमाणमेव जगत् स्यात् ।।
तथा प्रधानहेत्वभावे एव प्राक्तनन्यायेन 'अभेदे न शक्ति न क्रिया' (३५२-५) इत्यादिना घटादिकरणे कुम्भकारादीनां शक्तितः प्रवृत्तिरुपपद्यते, कार्यकारणविभागोऽपि प्रधानहेत्वभावे एव युक्तो न तु तत्सद्भावे इति प्राक् प्रतिपादितम् । प्रधानसद्भावे वैश्वरूप्यमनुपपत्तिकमेव, सर्वस्य जगतः तन्मयत्वेन तत्स्वरूपवदेकत्वप्रसक्तेस्तदविभागो दूरोत्सारित एवेति न कुतश्चिद्धेतोः प्रधानसिद्धिः ।
__ यदपि प्रधानविकारबुद्धिव्यतिरिक्तं चैतन्यमात्मनो रूपं कल्पयन्ति 'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम् [] इत्यागमात्, पुरुषश्च शुभाशुभकर्मफलस्य प्रधानोपनीतस्य भोक्ता न तु कर्ता, सकलजगत्परिणतिरूपायाः प्रकृतेरेव कर्तृत्वाभ्युपगमात्; प्रमाणयन्ति चात्र - 'यत् संघातरूपं वस्तु तत् परार्थं दृष्टम् यथा शयनासनायगादि , संघातरूपाश्च चक्षुरादयः' इति स्वभावहेतुः । यचासौ परः स आत्मेति सामर्थ्यात् सिद्धम् । गया था वह असिद्ध है, क्योंकि हर कोई भाव निरन्वय यानी निष्कारण विनाश से कलंकित है, अत: कार्य का किसी भी कारणादि में लय होने की बात तथ्यहीन है । लय के मन्तव्य पर दो विकल्प हैं - लय होगा तो अपने पूर्व (प्रगटावस्थारूप) स्वभाव के चले जाने पर होगा या रहते हुए ? यदि प्रथम विकल्प मानना है तब तो निरन्वय विनाश का जयजयकार हो गया, क्योंकि प्रतिपल इस प्रकार अपने आप पूर्वपूर्वक्षण के स्वभाव का विगम जारी रहता है, ओर स्वभावनाश ही वस्तुनाश है । यदि दूसरे विकल्प का स्वीकार करेंगे तो लय की बात ही नहीं घटेगी, क्योंकि पूर्वक्षण का स्वभाव यदि लय होते समय में भी पूर्ववत् जारी रहेगा तो लय किसका होगा ? यदि पूर्वस्वभाव के रहते हुये भी लय होने का मानेंगे तब तो वास्तविक लयक्षण के पूर्व पूर्व काल में भी लय होने का अतिप्रसंग आयेगा । फलत: यह परस्पर अत्यन्त विरुद्ध बात हो जायेगी कि एक ओर वैश्वरूप्य यानी कार्यों का वैविध्य है लेकिन दूसरी ओर उन का अविभाग यानी लय है ! जब लय हो रहा है तब कार्यवैविध्य कैसे ? और जब तक कार्यवैविध्य मौजूद है तब तक लय कैसे ? ___अथवा ये प्रधानसाधक सभी हेतु विरुद्धदोष ग्रस्त हैं, क्योंकि प्रधानात्मक नित्य एकरूप हेतु के न होने पर ही अपने अपने कारणों की भिन्न भिन्न शक्ति के जरिये परिमाणादिरूप से कार्य में वैचित्र्य घट सकता है; और कार्य-कारणभाव आदि घट सकते हैं । कैसे यह देखिये- नित्य एकरूप प्रधान ही यदि समुचे व्यक्त तत्त्वों का कारण बनेगा तब तो, प्रधान का स्वरूप जैसे प्रधानात्मक होने से एकरूप होता है, वैसे ही सारा विश्व भी प्रधानात्मक होने से एक-द्रव्यरूप बन बैठेगा, फिर यह जो परिमाणविभाग है कि- बुद्धि एक, अहंकार एक, पाँच तन्मात्राएँ, पाँच महाभूत... इत्यादि, वह कैसे घटेगा ? फलत: जगत् परिमाणशून्य हो जायेगा ।
तथा, घट आदि के उत्पादन में नियतरूप से कुम्हार आदि अपनी शक्ति के अनुरूप प्रवृत्ति करते हैं यह तथ्य भी नित्य एकरूप प्रधान के न होने पर ही संगत हो सकता है। इस में अगर युक्ति चाहिये तो वह 'अभेदवाद में न तो शक्ति घट सकती है, न उत्पादन क्रिया घट सकती है'... ऐसा कहते हुए पहले दिखायी गयी है । तात्पर्य यह है कि अभेद पक्ष के सत्कार्यवाद में कोई जब साध्य ही नहीं है तो किस की उत्पादक . द्र० योगदर्शन सामा०पा० सू ९ भा० पृ. ३१ पं०७ मध्ये । -. 'शयनासनाभ्यङ्गादिवत्' - इति सां० त० कौमुद्याम् ।
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