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________________ ३७४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् प्रवर्तत इति साध्यते - तदानकान्तिकता, विनापि हि प्रेक्षावता विधात्रा स्वहेतुसामर्थ्यात् प्रतिनियतपरिमाणादियुक्तस्योत्पत्त्यविरोधात् । न च प्रधानं प्रेक्षावत् कारणं युक्तम्, अचेतनत्वात् तस्य, प्रेक्षायाच चेतनापर्यायत्वात् । अपि च, 'शक्तितः प्रवृत्तेः' इत्यनेन किमव्यतिरिक्तशक्तिमत् कारणं साध्यते आहोस्विद् व्यतिरिक्तानेकशक्तिसम्बन्धि तदेकत्वादिधर्मकलापाध्यासितम् ? इति कल्पनाद्वयम् । तत्र यद्याद्या कल्पना तदा सिद्धसाधनं कारणमात्रस्य ततः सिद्धयभ्युपगमात् । द्वितीयायां हेतोरनैकान्तिकता, तथाभूतेन कचिदप्यन्वयाऽसिद्धेः । हेतुश्चासिद्धः यतो न विभिन्नशक्तियोगात् कस्यचित् क्वचित् कार्ये कारणस्य प्रवृत्तिः सिद्धा, स्वात्मभूतत्वाच्छक्तीनाम् । निरन्वयविनाशावष्टब्धत्वात् सर्वभावानां क्वचिदपि लयाऽसिद्धेः 'अविभागाद् वैश्वरूप्यस्य' इत्ययमपि हेतुरसिद्धः । लयो हि भवन् पूर्वस्वभावापगमे वा भवेद् अनपगमे वा ? यद्यायः पक्षः तदा निरन्वयविनाशप्रसंगः । अथ द्वितीयः तदा लयानुपपत्तिः, यतो नाविकलं स्वरूपं बिभ्रतः कस्यचिल्लयो नाम, अतिप्रसंगात् । अतिविरुद्धमिदं परस्परतः 'अविभागः' 'वैश्वरूप्यं च इति विरुद्धा वा एते हेतवः प्रधानहेत्वभाव (एव) स्वकारणशक्तिभेदतः कार्यस्य परिमाणादिरूपेण वैचित्र्यस्य कार्यकारणभावादीनां जायेंगे । शंका बनी रहने का मूल यह है कि प्रधानात्मक कारण के अभाव के साथ परिमाण आदि हेतुओं का विरोध प्रसिद्ध नहीं है । यदि परिमाणादि हेतुकलाप से सिर्फ कारणमात्र के अस्तित्व को सिद्ध करना है तो वह तो ऐसे भी सिद्ध है इसलिये सिद्धसाध्यता दोष होगा । हम भी नहीं चाहते कि विना कारण ही कार्य का उद्भव हो जाय । अत: सिद्ध होने वाले कारणमात्र को 'प्रधान' संज्ञा देकर यदि आप प्रधान को प्रसिद्ध करना चाहते हैं तो कुछ भी बाध नहीं है । यदि कारणमात्र नहीं किन्तु बुद्धिमत् कारण सिद्ध करना अभिप्रेत है जिस से कि नियत परिमाणवाले व्यक्त का उद्भव हो, तथा अपनी शक्ति के अनुसार नियत कार्य को उत्पन्न करे, तो हेतुओं में पुन: अनैकान्तिकता दोष होगा । कारण, बुद्धिमत् विधाता के न होने पर भी अपने अपने हेतुओं की शक्ति के अनुरूप नियतपरिमाणादिसमन्वित भावों की उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं है । तथा, जिस प्रधान की आप सिद्धि करना चाहते हैं उसको बुद्धिमत्कारणरूप आप नहीं मानते, क्योंकि वह तो अचेतन है, जब कि बुद्धि तो चैतन्य का पर्याय है । तदुपरांत, 'शक्तिअनुरूप प्रवृत्ति' इस हेतु से भी आप को किस प्रकार के कारण की सिद्धि करना है - क्या अपने से अभिन्न शक्ति को धारण करने वाले कारण की ! या अपने से भिन्न अनेक शक्तियों से सम्बद्ध, तथा एकत्व-नित्यत्वादिधर्मकलाप विशिष्ट ऐसे कारण की ? ये दो विकल्प हैं । प्रथम विकल्प में सिद्धसाध्यता ही है, क्योंकि अभिन्नशक्तिशालि कारणमात्र का अस्तित्व हमें भी स्वीकार्य है । यदि दूसरे विकल्प के मुताबिक कारणसिद्धि अभिप्रेत हो, तो हेतु में अनैकान्तिकता दोष होगा, क्योंकि भिन्न भिन्न विचित्रशक्तिवाला एकत्वादिधर्मविशिष्ट तत्त्व, हेतुप्रयोग के पहले सिद्ध न होने से, हेतु के साथ उसकी व्याप्ति भी सिद्ध नहीं है, अत: व्याप्तिशून्य हेतु साध्य के विरह में भी हो सकता है। कहीं भी ऐसा देखने को नहीं मिलेगा कि भिन्न शक्ति के भरोसे पर कोई कारण किसी कार्य को निपजा सके । शक्ति तो वस्तु की आत्मा यानी अभिन्न होती है । ★ वैश्वरूप्य का अविभाग- हेतु में असिद्धि दोष★ प्रधान की सिद्धि के लिये, वैश्वरूप्य का अविभाग यानी कारण में कार्य का लय - यह हेतु दिखाया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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