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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
३७३
न्वितत्वमसत्यप्येककारणपूर्वकत्वे पुरुषेष्विव भविष्यतीति कथं नानैकान्तिकत्वं हेतोः । मूलप्रकृत्यवस्थायां च सत्त्वरजस्तमोलक्षणा गुणाः गुणत्वाऽचेतनाऽभोक्तृत्वादिभिरन्विताः प्रधानपुरुषाश्च नित्यत्वादि(भि)रन्वितास्तथाभूतैककारणपूर्वकाच न भवन्तीत्यनैकान्तिकत्वमेव । तदेवं 'समन्वयात्' इत्यस्य हेतोरसिद्ध -विरुद्धानैकान्तिकदोषदुष्टत्वान प्रधानसाधकत्वम् । अनेनैव न्यायेन 'परिमाणात् शक्तितः प्रवृत्तेः कार्यकारणभावात् वैश्वरूप्यस्याविभागात्' इत्यादिकानामपि न प्रधानास्तित्वसाधकत्वम् ।
तथाहि - साध्यविपर्यये च बाधकप्रमाणाऽप्रदर्शनात् सर्वेप्येतेऽनैकान्तिकाः । न हि प्रधानाख्यस्य हेतोरभावेन परिमाणादीनां विरोधः सिद्धः । तथाहि- यदि तावत् कारणमात्रस्यास्तित्वमत्र साध्यते तदा सिद्धसाध्यता । न ह्यस्माकं कारणमन्तरेण कार्यस्योत्पादोभीष्टः, न च कारणमात्रस्य 'प्रधानम्' इति नामकरणे किंचिद् बाध्यते । अथ प्रेक्षावत् कारणमस्ति यद् व्यक्तं नियतपरिमाणमुत्पादयति शक्तितश्च
★ आत्मस्थल में समन्वयहेतु साध्यद्रोही* आत्मा को लेकर भी 'समन्वय' हेतु में अनैकान्तिकता हो सकती है । कैसे यह देखिये- पुरुषों में चेतनत्वादिधर्मों का अन्वय प्रसिद्ध है फिर भी नित्य होने के कारण उनमें सजातीय एककारणपूर्वकत्व मान्य नहीं है, इस प्रकार पुरुषों में साध्य के न होने पर भी, समन्वय हेतु वहाँ रह जाने से साध्यद्रोही हो गया । यदि ऐसा कहा जायपुरुषों में चैतन्यादि धर्मों का अन्वय औपचारिक है, वास्तविक नहीं है । सब पुरुष अचेतनादि से व्यावृत्त हैं, इसलिये अर्थान्तर (=अचेतनादि) की व्यावृत्ति यहाँ औपचारिकरूप से चैतन्यादि जाति रूप मान ली गयी है । तात्त्विक कोई चैतन्यादि जाति स्वीकृत नहीं है ।- तो यह बात प्रतिपक्ष में भी तुल्य है, क्योंकि शब्दादि में भी औपचारिकरूप से, पुरुषों की तरह एककारणपूर्वकत्व के न होने पर भी, असुखादिव्यावृत्तिस्वरूप सुखादिधर्मों का अन्वय हो सकता है । अत: साध्य के विरह में भी शब्दादि में समन्वय हेतु के रह जाने से साध्यद्रोह स्पष्ट है।
तदुपरांत, मूलप्रकृतिअवस्था में, सत्त्व-रजस-तमस् ये सब गुण गुणत्व-अचैतन्य-अभोक्तृत्वादि धर्मों से अवित रहते हैं किन्तु उन में एक कारणपूर्वकत्व नहीं है क्योंकि वे तो प्रकृति से अभिन्न हैं और प्रकृति नित्य है - अजन्य मूलतत्त्व है । एवं, पुरुष और प्रधान में नित्यत्वादि कई धर्मों का समन्वय है किन्तु उन में भी एककारणपूर्वकत्व नहीं है । अत: इन दोनों स्थलों में साध्य के न रहने पर भी हेतु रह जाने से, 'समन्वय' हेतु में अनैकान्तिकता होगी।
निष्कर्ष, समन्वय हेतु - असिद्धि, विरुद्धता, अनैकान्तिकता दोषों से दुष्ट होने के कारण, प्रधानतत्त्व को सिद्ध करने में सक्षम नहीं है ।
इसी प्रकार की युक्तियाँ, यह भी सिद्ध कर सकती हैं कि परिमाण, शक्तित: प्रवृत्ति, कार्यकारणभाव और वैश्वरूप्य का अविभाग इत्यादि सांख्यकारिका(१५) में कहे हुए हेतु भी प्रधान की हस्ती को सिद्ध करने के लिये असमर्थ हैं।
* परिमाणादि चार हेतु प्रधानसिद्धि में अक्षम ★ कैसे, यह देखिये- परिणाम आदि हेतु प्रयोगों में, विपक्ष बाधक तर्क भी दिखाना चाहिये लेकिन वह नहीं दिखाया है, तब विपक्ष की यानी साध्यभाव भी शंका बनी रहेगी, फलत: हेतु सब संदिग्धानकान्तिक बन
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