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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् नापि स्थैर्यम् क्रमोत्पत्तिमतां तथैव प्रतिभासनात् । 'प्रतिभासभेदश्च भावान् भिनत्ति' इत्यसकृद् प्रतिपादितम् । 'मृद्विकारादिवत्' इति दृष्टान्तोपि साध्यसाधनविकलः, एकजात्यन्वयस्य एककारणप्रभवत्वस्य च तत्राप्यसिद्धत्वात् । न चैकं मृत्पिण्डादिकं कारणं मृदादिजातिश्चैकानुगता तत्र सिद्धेति वक्तव्यम्, यतो नैकोवयवी मृत्पिण्डादिरस्ति एकदेशावरणे सर्वावरणप्रसंगात्, नाप्येका जातिः, प्रतिव्यक्तिप्रतिभासभेदाद् इति प्रतिपादितत्वात् प्रतिपादयिष्यमाणत्वाच्च ।
'समन्वयात्' इत्यस्य हेतोः पुरुषैश्वानैकान्तिकत्वम् । तथाहि - चेतनत्वादिधमैरन्विताः पुमांसोऽभीष्टाः न च तथाविधैककारणपूर्वकास्त इष्यन्ते । न च चेतनाद्यन्वितत्वं पुरुषाणां गौणम्, यतः अचेतनादिव्यावृत्ताः सर्व एव पुरुषाः अतोऽर्थान्तरव्यावृत्तिरूपा चैतन्यादिजातिस्तदननुगामिनी कल्पिता न तु तात्त्विकी समस्तीति वक्तव्यम् अन्यत्रापि समानत्वात् । यतः शब्दादिष्वपि अमुख्यं सुखाद्य
नित्य और एकात्मक प्रधान रूप कारण की सिद्धि इसलिये भी शक्य नहीं है कि - नित्य में क्रमश: अथवा एक साथ अर्थ क्रिया करने की क्षमता होने में विरोध है इसलिये नित्य में कारणत्व ही घटता नहीं । तथा, कार्यवैचित्र्य कभी एककारणमूलक हो नहीं सकता किन्तु कारणवैविध्यमूलक ही हो सकता है । यदि कारण विविध नहीं मानेंगे तो कार्यवैचित्र्य निर्हेतुक बन जाने का अतिप्रसंग होगा इसलिये सर्वथा एकरूप तत्त्व में कारणत्व घट नहीं सकता । सिर्फ अनेक-अनित्य तत्त्व में ही कारणत्व घट सकता है । इस प्रकार विपरीत अर्थ की सिद्धि होने पर नित्य एकस्वरूप प्रधान की सिद्धि असंभव है । हाँ, यदि अनित्य एवं अनेकसंख्यक कारण की ही 'प्रधान' ऐसी संज्ञा करके प्रधान की सिद्धि मानी जाय तो कोई विवाद नहीं है ।
★ एकजाति और स्थैर्य का निषेध* यद्यपि कल्पनाज्ञान से तत्त्वों के बारे में यह सत् है सत् है' ऐसा एकरूपता का अध्यवसाय, तथा 'यह वही है' ऐसा स्थिरस्वभाव का अध्यवसाय होता है, किन्तु तथापि इससे एक जाति समन्वय अथवा स्थैर्य की सिद्धि सम्भव नहीं है । एक जाति समन्वय इसलिये नहीं है कि भावों के बारे में देशभेद, कालभेद, शक्तिभेद एवं प्रतिभासादि भेद के जरिये 'अपने अपने विशिष्टस्वभाव में अवस्थित' भावों में भी भेद होता है । स्थैर्य इसलिये नहीं है कि भावों की उत्पत्ति क्रमश: होती है और अंकुरादि में क्रमश: उत्पत्ति की प्रतीति भी होती है । 'भावों में प्रतिभासभेदमूलक भेद होता है यह तो कई दफे कह दिया है ।
प्रधान की सिद्धि के लिये जो मिट्टी के विकार (घट) आदि का उदाहरण दिया गया है उसमें न तो साध्यवत्ता है न हेतुमत्ता । कारण, मिट्टीविकार में किसी एक जाति का अन्वय(= हेतु) नहीं है ओर एककारणजन्यत्व (रूप साध्य) भी नहीं है, दोनों उसमें असिद्ध हैं । यदि कहें कि- 'घट का कारण एक मिट्टिपिण्ड है और घट में एक मृत्त्व जाति भी है जो मृत्पिण्ड में रहती है, तो फिर साध्य-साधन का उदाहरण में अभाव कैसे ?'तो उत्तर यह है कि वह मिट्टीपिण्ड कोई एक अवयवी नहीं है, यदि वह एक होगा तो उसके एक भाग में आवरण लग जाने पर पूरे मिट्टीपिण्ड को आवरण लग जाने की आपत्ति होगी । तथा एक जाति भी नहीं है क्योंकि आप एक जाति की सिद्धि समानप्रतिभास से करेंगे, किन्तु मिट्टी पिण्ड का और घट का प्रतिभास समान नहीं किन्तु अलग अलग होता है - यह बात पहले हो चुकी है और अग्रिम ग्रन्थ में भी की जायेगी।
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