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________________ द्वितीयः खण्डः का० - ३ ३७९ "बुद्धिदर्पतृत्वमिष्टम्, किं तर्हि ? बुद्ध्यध्यवसितस्यार्थस्य प्रतिबिम्बोदयन्यायेन संचेतनात् । तथाहि णसंक्रान्तमर्थप्रतिबिम्बकं द्वितीयदर्पणकल्पे पुंस्यध्यारोहति, तदेव भोक्तृत्वमस्य न तु विकारापत्तिः । न च पुरुषः प्रतिबिम्बमात्र संक्रान्तावपि स्वरूपप्रच्युतिमान् दर्पणवदविचलितस्वरूपत्वात् । असदेतत् यतो बुद्धिदर्पणारूढमर्थप्रतिबिम्बकं द्वितीयदर्पणकल्पे पुंसि संक्रामत् ततो व्यतिरिक्तमव्यतिरिक्तं वा ? इति वाच्यम् । यदि अव्यतिरिक्तमिति पक्षस्तदा तदेवोदयव्यययोगित्वं पुंसः प्रसज्येत उदयादियोगिप्रतिबिम्बाव्यतिरेकात् तत्स्वरूपवत् । अथ व्यतिरिक्तमित्यभ्युपगमः तदा न भोक्तृता, नभोक्तृवस्थातस्तस्य कस्यचिद् विशेषस्याभावात् । न चार्थप्रतिबिम्बसम्बन्धात् तस्य भोक्तृत्वं युक्तम् अनुपकार्योपकारकयोः सम्बन्धासिद्धेः उपकारकल्पनाया अपि भेदाभेदविकल्पतोऽनुपपत्तेः । Jain Educationa International - अपि च, पुरुषस्य दिदृक्षा प्रधानं यदि जानीयात् तदा पुरुषार्थं प्रति प्रवृत्तिर्युक्ता स्यात्, न चैवम् तस्य जडरूपत्वात् । सत्यपि चेतनावत्सम्बन्धे न पङ्गवन्धदृष्टान्तादत्रप्रवृत्तिर्युक्तिमती; यतोऽन्धो जो संचेतना उदित होगी, वही उसका भोक्तृत्व होगा । देखिये- अर्थ का प्रतिबिम्ब पहले बुद्धिरूप दर्पण में संक्रान्त होता है, वही प्रतिबिम्ब दूसरे दर्पण के तुल्य आत्मा में पुनः प्रतिफलित होता है, वही उसका भोक्तापन है, यहाँ विकार की बात ही नहीं है । सिर्फ प्रतिबिम्ब का प्रतिफलन होने पर पुरुष के स्वरूप में कोई परिवर्त्तन लेशमात्र नहीं होता, जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बोदय होने पर भी दर्पण का स्वरूप अविचल रहता है वैसे आत्मा का भी है ।" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ ये विकल्प हैं - बुद्धिरूपी दर्पण में उदित प्रतिबिम्ब का प्रतिबिम्ब जो दूसरे दर्पणरूप आत्मा में प्रत्यावर्त्तित होता है वह प्रतिबिम्ब आत्मा से भिन्न होता है या अभिन्न ? यदि अभिन्न होता है तब तो उदय अस्त होने वाले प्रतिबिम्ब की तरह उससे अभिन्न पुरुष में भी उदय-अस्त का योग प्राप्त होगा, जैसे प्रतिबिम्ब से अभिन्न होने के नाते प्रतिबिम्ब के स्वरूप का उदय अस्त होता है । यदि वह प्रतिबिम्ब आत्मा से भिन्न है, तब तो उस से अभोक्तृ अवस्था में तिलमात्र भी परिवर्तन न होने से आत्मा में भोक्तृत्व संगत न होगा । भिन्न होने पर भी अर्थप्रतिबिम्ब का आत्मा के साथ सम्बन्ध मानकर भोक्तृत्व की संगति की आशा नहीं की जा सकती, क्योंकि उपकार के विना सम्बन्ध नहीं बनता । प्रस्तुत में प्रतिबिम्ब कितना भी उपकारपटु हो लेकिन आत्मा अविकारी होने से उपकार्य बन नहीं सकता, अतः उपकार के विना सम्बन्ध असम्भव है । तथा उपकार भी मान ले, फिर भी उसके लिये भेदाभेद विकल्प होगा तो एक भी संगत नहीं होगा । सारांश, आत्मा में भोक्तृत्व युक्तिसंगत नहीं है । ★ अन्ध- पंगुन्याय से प्रधानप्रवृत्ति असंभव ★ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रधान को पुरुष की दिक्षा का ज्ञान हो तभी पुरुष अर्थ सम्पादन लिये उसकी प्रवृत्ति हो सकती है, किन्तु प्रकृति जड होने के नाते दिदृक्षा का ज्ञान वह नहीं कर सकती । चाहे चैतन्यवान् पुरुष के साथ उसका सम्बन्ध भी हो जाय, फिर भी अन्ध- पंगु न्याय से उसकी प्रवृत्ति मानने में कोई युक्ति नहीं है; क्योंकि दृष्टान्त विलक्षण है । अन्ध को यद्यपि स्वयं मार्गदर्शन नहीं है किन्तु चैतन्यशील होने के नाते वह पंगु की सूचना को समझ सकता है । प्रधान चैतन्यशील न होने से पुरुष की सूचना नहीं समझ पायेगा, क्योंकि वह जड है । तथा प्रधान और पुरुष दोनों ही नित्य है, नित्य दो पदार्थ एक-दूसरे के उपकारी नहीं बन सकतें, अतः उन दोनों में सम्बन्ध भी नहीं जमेगा । * *, तारकद्वयमध्यगतपाठः स्याद्वादमंजरी - न्यायावतारटीप्पन - स्याद्वादकल्पलतायामुद्धृतः वादमहार्णवनामोल्लेखेन । For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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