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द्वितीयः खण्डः - का०-३
परैस्तु परमार्थत एव वस्तुविषयत्वमिष्टं प्रीत्यादिप्रतिपत्तीनाम्, अन्यथा सुखात्मनां शब्दादीनामनुभवत् सुखानुभवख्यातिरित्येतदसंगतं स्यात् । सुखादिसंविदां च सविकल्पकत्वान्न किंचिदनिश्चितं रूपमस्तीति सर्वात्मनाऽनुभवख्यातिप्रसक्तिः यतः स्वार्थप्रतिपत्तिः निश्चयानामियमेव यत् तन्निश्चयनं नाम ।
यदपि 'प्रसाद-ताप-दैन्याद्युपलम्भात् सुखाद्यन्वितत्वं सिद्धं शब्दादीनाम्' (३०३-७/८) इत्यभिहितम् तदनैकान्तिकम् । तथाहि - योगिनां प्रकृतिव्यतिरिक्तं पुरुषं भावयतां तमालम्ब्य प्रकर्षप्राप्तयोगानां प्रसादः प्रादुर्भवति प्रीतिश्च । अप्राप्तयोगानां तु द्रुततरमपश्यतामुद्वेगः आविर्भवति, जडमतीनां च प्रकृत्या - वरणं प्रादुर्भवति । न च परैः पुरुषस्त्रिगुणात्मकोभीष्ट इति 'प्रसाद - ताप - दैन्यादिकार्योपलब्धेः' इत्यस्य प्रतीति में अवस्तुविषयता की यानी मिथ्यात्व की प्रसक्ति होगी, क्योंकि वह वास्तविक त्रयाकार होनी चाहिये किन्तु नहीं है । कैसे यह देखिये, वस्तु आपके मत में त्रयाकार है, फिर भी अदृष्टादि के जरिये भोक्ता को उसकी प्र एक सुखादि- आकार वाली होती है तो वह निरालम्बन क्यों नहीं कही जायेगी ? यहाँ अनुमान प्रयोग देखिये- "जो जिस वस्तु के समानाकार संवेदन रूप नहीं होता वह उस वस्तु विषयक नहीं होता । उदा० चाक्षुषज्ञान शब्दसमानाकार नहीं होता तो वह शब्दविषयक भी नहीं होता । सांख्य का बताया हुआ संवेदन त्रयात्मक वस्तु का समानाकार नहीं है अतः वह त्रयात्मकवस्तुविषयक नहीं होता ।" इस प्रयोग में हेतु व्यापकानुपलब्धि रूप है । तद्वस्तुविषयता तत्समानाकारता को व्याप्य है, तत्समानाकारतारूप व्यापक की अनुपलब्धि से यहाँ तद्विषयता रूप व्याप्य के अभाव की सिद्धि अभिप्रेत है । इतना होने पर भी भोक्ता की प्रतीति को आप यथार्थ वस्तुविषयक मानेंगे तो सब प्रतीतियाँ तद्-तद् वस्तुआकार न होने पर भी तद्-तद् विषयक हो बैठेगी यह विपक्षबाधक तर्क है ।
★ बौद्धमत में विकल्प वास्तविक प्रमाण नहीं है ★
यदि यह कहा जाय - “पर्यायवादी बौद्ध के मत में निर्विकल्प प्रत्यक्ष वस्तु को उसके समस्त रूपमें ग्रहण करता है, फिर भी ज्ञाता के अपने अपने संस्कार के अनुरूप ही क्षणिकत्व या स्थायित्व का निश्चय उत्पन्न होता है, सभी को समस्तरूपाकार निश्चय नहीं होता । इसी तरह, वस्तु त्रयात्मक होने पर भी अदृष्ट के प्रभाव से एकाकार ही संवेदन का उदय हो सकता है, क्योंकि हम क्षणिकादि विषयक विकल्प ( = निश्चय ) को भी पारमार्थिक वस्तु विषयक नहीं मानते हैं । पर्यायवादी के मत में पारमार्थिकवस्तु विकल्पगोचर नहीं मानी जाती, फिर भी विकल्प को इसलिये प्रमाण माना जाता है कि वह परम्परा से वस्तु के साथ सम्बन्ध रखता है और पारमार्थिक वस्तु की उपलब्धि में परम्परा से निमित्त बन जाता है । प्रमाणवार्त्तिक में कहा है- लिंगसामान्य और लिंगिसामान्य को विषय करने वाली बुद्धि भी परम्परया वस्तुसम्बन्धि होती है इसलिये साक्षात्स्वरूपाभासशून्य होने पर भी बन्धन (= वञ्चन) रहित यानी संवादिनी होती है ।" (प्र.वा. के श्लोक में अबन्धनम् के बदले अवञ्चनम् ऐसा पाठ है, अर्थ में कुछ फर्क नहीं है) ।
इसलिये पर्यायवाद में क्षणिकत्वादिनिश्चय में मिथ्यात्व की आपत्ति अनिष्टरूप नहीं है । जब कि सांख्य मत में तो प्रीत्यादिएकाकार बुद्धि को पारमार्थिकवस्तु विषयक माना गया है इसलिये आप के मत में तो वह आपत्ति आपत्ति ही हैं। यदि आप भी शब्दादिप्रतीति को निरालम्बन मानेंगे तब तो सुखादिमय शब्दादि का अनुभव हो जाय तो भी प्रतीति निरालम्बन होने के कारण ऐसा कहना असंगत ठहरेगा कि यह सुखानुभवख्यात है । दूसरी बात यह है कि, हमारे मत में तो वस्तु का सर्वात्मना प्रत्यक्ष होने पर किसी एक अंश का विकल्प होता है, किन्तु आपके मत में तो सुखादिसंवेदन निर्विकल्परूप नहीं है किन्तु सविकल्परूप है इसलिये उसमें
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