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________________ ३७० श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् कथं नानैकान्तिकता ? न च संकल्पात् प्रीत्यादीनि प्रादुर्भवन्ति न पुरुषादिति वाच्यम् शब्दादिष्वप्यस्य समानत्वात् । संकल्पमात्रभावित्वे च सुखादयो बाह्या न स्युः, संकल्पस्य संविद्रूपत्वात् । बाह्यविषयोपधानमन्तरेणापि पुरुषदर्शने प्रीत्यायुत्पत्तिदर्शनात् 'बाह्यसुखाद्युपधानबलात् सातादिरूप(त्व)म् संवे. दनस्य' इत्यपि सव्यभिचारमेव । इष्टानिष्टविकल्पादना(वा?)श्रितबाह्यविषयसंनिधानं प्रसिद्धमेव हि सुखादिवेदनं कथं तत् परोपधानमेव युक्तम् ! न च मनोपि त्रिगुणं तदुपधानवशात् तदाविर्भवतीति वक्तव्यम् 'यदेव हि प्रकाशान्तरनिरपेक्षं स्वयं सिद्धम्' (३६६-१०) इत्यादिना संविद्रूपत्वस्य तत्र साधितत्वात्, अतः 'समन्वयात्' इत्यसिद्धो हेतुः । नैकान्तिकश्च, प्रधानाख्येन कारणेन हेतोः क्वचिदप्यन्वयासिद्धेः । तथाहि - व्यापि नित्यमेकं त्रिगुणात्मकं कारणं साधयितुमिष्टम्, न चैवंभूतेन कारणेन हेतोः प्रतिबन्धः प्रसिद्धः । न चायं नियमः - यदात्मकं कार्य कारणमपि तदात्मकमेव, तयोर्भेदात् । तथाहि - हेतुमदादिभिधमर्युक्तं व्यक्तमभ्युपगम्यते तद्विपरीतं चाव्यक्तमिति कथं न कार्यकारणयोर्भेदादनैकान्तिको हेतुः !! कुछ भी अनिश्चित तो है ही नहीं फिर समस्तपन में सुखादिअनुभव ही होना चाहिये- अर्थात् त्रयाकार ही अनुभव होना चाहिये न कि एकाकार । निश्चयात्मक विकल्पों की निश्चयन क्रिया का मतलब ही यह है अपने अर्थ को ग्रहण करना, यदि यहाँ सुखादित्रयात्मक शब्दादि हो तो उस का निश्चयात्मक ग्रहण भी त्रयात्मकरूपवेदी ही होना चाहिये, यदि वैसा नहीं होता है तो वह संवेदन मिथ्या ठहरेगा । ★सुखादि के विरह में भी प्रसादादि से अनैकान्तिकता* यह जो पहले कहा था [३०४-२३]- 'शब्दादितत्त्वों में प्रसादादि, तापादि और दैन्यादि के उपलम्भ से सुखादि का अनुष्वंग सिद्ध होता है ।' वहाँ भी अनेकान्त है, अर्थात् प्रसादादि हेतु, सुखादि के विरह में भी रह जाता है । कैसे यह देखिये- 'मैं प्रकृति से पृथक् हूँ' इस प्रकार भावना का अभ्यास करने वाले योगियों को, आत्म तत्त्व के आलम्बन से जब प्रकृष्ट योग सिद्ध होता है तब, प्रसाद और प्रीति का प्रादुर्भाव होता है । यहाँ योगी पुरुष में प्रसाद होने पर भी सुख नहीं होता क्योंकि पुरुष तो सांख्य मत में निर्गुण यानी गुणत्रयशून्य होता है । तथा, योग तक जिस की पहुंच नहीं हुई ऐसे लोग, जिन को शीघ्रतर दर्शन नहीं हुआ उन्हें उद्वेग पैदा होता है, हालाँकि पुरुष में दु:ख नहीं होता । तथा, स्वभाव से ही जडबुद्धिवाले लोगों को आवरण का उदय होता है किन्तु आत्मा में सांख्यमतानुसार मोह नहीं होता । इस प्रकार आत्मा में प्रसाद, ताप और दैन्यादि रूप कार्य के उपलब्ध होने पर सुखादि गुणत्रय के न होने से स्पष्ट ही हेतु में अनेकान्त प्रगट हो जाता है । यदि ऐसा कहें कि- 'इन प्रसादादि का जन्मस्थान पुरुष है ही नहीं, किन्तु संकल्प (यानी बुद्धि तत्त्व) है, और वहाँ सुखादि रहते हैं इसलिये अनेकान्त नहीं है'- तो यह बात शब्दादि के लिये भी समान है, अर्थात् शब्दादि को प्रसादादि का जन्मस्थान मानने की जरूर नहीं है, वहाँ भी संकल्प को ही मानना । दूसरी बात, आप तो पंच भूतादि में सुखादि मानते हैं इसलिये वे बाह्य भी हैं, किन्तु यदि संकल्प को ही सुखादि का आश्रय मानेंगे तो सुखादि को बाह्य नहीं मान सकेंगे, क्योंकि संकल्प तो संवेदनस्वरूप होने से आंतरिक पदार्थ है । यह जो कहा था [३६८-१४]- 'बाह्य सुखादि की उपाधि के संनिधान से सातारूप न होने पर भी संवेदन सातारूप लक्षित होता है' - वहाँ भी अनेकान्त है, क्योंकि बाह्य विषयों की उपाधि के विरह में भी जब पुरुषसाक्षात्कार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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