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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् I अथ यद्यपि त्रयात्मकं वस्तु तथाप्यदृष्टादिलक्षणसहकारिवशात् किंचिदेव कस्यचिद् रूपमाभाति न सर्व सर्वस्य । असदेतत्- तदाकारशून्यत्वादवस्त्वालम्बनप्रतीतिप्रसक्तेः । तथाहि - त्र्याकारं तद् वस्तु एकाकाराश्च संविदः संवेद्यन्ते । इति कथं अनालम्बनास्ता न भवन्ति ? प्रयोगः 'यद् यदाकारं संवेदनं न भवति न तत् तद्विषयम् यथा चक्षुर्ज्ञानं न शब्दविषयम्, त्र्यात्मकवस्त्वाकारशून्याथ यथोक्ताः संविदः ' इति व्यापकानुपलब्धिः । तथापि तद्विषयत्वेऽतिप्रसंगापत्तिर्विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । न च 'यथा प्रत्यक्षेण गृहीतेऽपि सर्वात्मना वस्तुनि अभ्यासादिवशात् क्वचिदेव क्षणिकत्वादौ निश्चयोत्पत्तिर्न सर्वत्र; तद्वद् अदृष्टादिबलाद् एकाकारा संविद् उदेष्यती' त्यभिधातुं क्षमम्, क्षणिकादिविकल्पस्यापि परमार्थतो वस्तुविषयत्वानभ्युपगमात्, वस्तुनो विकल्पाऽगोचरत्वात्, परम्परया वस्तुप्रतिबन्धात् तथाविधतत्प्राप्तिहेतुतया तु तस्य प्रामाण्यम् । उक्तं च [ प्र० वा० २-८२] लिङ्ग लिङ्गिधियोरेवं पारम्पर्येण वस्तुनि । प्रतिबन्धात् तदाभासशून्ययोरप्यबन्धनम् ॥ इति । ३६८ में हेतु रहता है तब विरुद्धता को अवकाश ही कैसे रहेगा ? यदि यह कहा जाय - 'बाह्यदेश में रहे हुए नीलादि जब ज्ञान में संनिहित होते हैं तब स्वयं नीलादिस्वरूप न होने पर भी ज्ञान नीलावभासि हो - नीलमय हो - ऐसा प्रतीत होता है । ऐसे ही बाह्य साधन- सुविधा के सामर्थ्य से उत्पन्न सुखादि के संनिधान में, स्वयं सातादिरूप न होने पर भी संवेदन सातादिमय होने का अवभास होता है, इस प्रकार संवेदन में सातादिमयता का स्वीकार करने पर भी सुखादि में संवेदनरूपता की सिद्धि नहीं हो सकती । अतः सुखादि में सुखादिमयता का अभाव न होने पर भी ज्ञानमयता के अभाव के रह जाने से ज्ञानमयतत्त्वाभावरूप हेतु साध्यद्रोही बन जाता है ।" तो ऐसा कहना अयुक्त है । इसका कारण यह है कि एक ही त्रिगुणात्मक वस्तु भी प्रीत्यादिआत्मक प्रतिनियत एक गुण के रूप में उपलब्ध होती हुयी दिखाई देती है । और यह ज्ञाता की अपनी अपनी आदत और पुनः पुनः एक विषय के अभ्यास पर अवलम्बित होता है । कैसे यह देखिये अपनी वासना के प्रभाव से कामी लोगों को शराब एवं स्त्री के बारे में नियतस्वरूप प्रीतिआदि उत्पन्न होते हैं, कामी लोगों को होते हैं सभी को नहीं । ऐसे ही अपने स्वभाव के कारण ऊँट आदि को बबूल में रुचि - प्रीति होती है, सभी को नहीं होती । यह तथ्य शब्दादि को सुखादिमय मानने में बाधक हैं, यदि शब्दादि विषय स्वयं सुखादिमय होते तो सभी के लिये वे तुल्यरूप से सुखादिमय विषयस्वरूप होने से, समानरूप से सभी को प्रीति आदिरूप में परिणत होते, नीलादि विषय सभी दृष्टा के लिये समानरूप से नीलादिरूप होने से नीलादिरूप से सभी को संविदित होते हैं तो ऐसे ही शब्दादि में सभी को सुखमयता का संवेदन होना चाहिये - किन्तु नहीं होता इसलिये शब्दादि में सुखादिमयता घट नहीं सकती । फिर भी यदि उन में सुखादिरूपता मानेंगे तो सभी सुख - दुःख - मोहगर्भित चित्रविचित्र संवेदन होने का अतिप्रसंग होगा, कामी लोगों को सिर्फ प्रीति आदि का संवेदन होता है वह नहीं घटेगा । ★ सांख्यमत की प्रतीति में मिथ्यात्वप्रसंग ★ - सांख्य:- वस्तु यद्यपि सुख-दुःख-मोह त्रयात्मक होती है, फिर भी अपने अपने अदृष्ट आदिरूप सहकारियों की विभिन्नता के कारण किसी एक भोक्ता को किसी एक सुखादिमय या दुःखादिमय आदि रूप से प्रतीत हो सकती है, इतने मात्र से वह त्रयात्मक न होने का सिद्ध नहीं होता । पर्यायवादी :- यह कथन गलत है । किसी एक भोक्ता को किसी एक सुखमयादिरूप से होने वाली Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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