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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
३६७ योग्यादिवद् वाऽन्येषामप्यनुग्रहोपघातौ न स्याताम् अविशेषात् । संवेदनस्य च सातादिरूपत्वाभ्युपगमे संविद्रूपत्वं सुखादेः सिद्धम् । इदमेव हि सुखं दुःखं च नः यत् सातमसातं च संवेदनम्' इति नानैकान्तिकता हेतोः ।
नाप्यसिद्धता, सर्वेषां बाह्यार्थवादिनां संविद्रूपरहितत्वस्य शब्दादिषु सिद्धत्वात् । विज्ञानवादिमता. भ्युपगमोऽन्यथा प्रसज्यते, तथा चेष्टसिद्धिरेव । विरुद्धताऽप्यस्य हेतोर्न सम्भवति सपक्षे भावात् । न च यथा बहिर्देशावस्थितनीलादिसंनिधानवशाद् अनीलादिस्वरूपमपि संवेदनं नीलनिर्भासं संवेद्यते तथा बाह्यसुखाद्युपधानसामर्थ्याद् असातादिरूपमपि सातादिरूपं लक्ष्यते, तेन संवेदनस्य सातादिरूपत्वेऽपि न सुखादीनां संविद्रूपत्वं सिद्धयति, अतोऽनैकान्तिकता हेतोरिति वक्तव्यम् अभ्यास-प्रकृतिविशेषत एकस्मिन्नपि त्रिगुणात्मके वस्तुनि प्रीत्याद्याकारप्रतिनियतगुणोपलब्धिदर्शनात् । तथाहि - भावनावशेन मयाऽङ्गनादिषु कामुकादीनाम् जातिविशेषाच्च करभादीनां केषांचित् प्रतिनियताः प्रीत्यादयः सम्भवन्ति न सर्वेषाम्, एतच्च शब्दादीनां सुखादिरूपत्वान्न युक्तम्, सर्वेषामभिन्नवस्तुविषयत्वान्नीलादिविषयसंवित्तिवत् प्रत्येकं चित्रा संवित् प्रसज्येत । ___जो भी अन्य प्रकाश से निरपेक्ष हो कर स्वयं साता-असाता रूप में अनुभवपथ पर उतर आता है वह ज्ञान, संवेदन, चैतन्य और सुख इत्यादि एकार्थक शब्दों से व्यवहृत होता है । यदि ऐसा कहें कि - 'सुखादि की अनुभूति सुखभिन्न संवेदन से होती है इसी लिये उन में अनुभवरूपता का व्यवहार होता है, स्वयंवेदि होने के कारण अनुभवरूपता का व्यवहार नहीं होता' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि सुखादि को अन्यानुभववेद्यत्व के आधार पर अनुभवरूप होने का मानेंगे तो वे सिर्फ ज्ञानरूप में ही वेद्य होंगे न कि साता-असातारूप में भी, क्योंकि आप को वे स्वयं सातानुभवादिरूप मान्य नहीं है, जैसे शब्दादि अन्यानुभववेद्य हैं तो उन का साता-असातारूप में अनुभव नहीं होता । और भी देखिये - योगिपुरुष अथवा अनुमितिकर्ता अन्य लोगों के सुख-दु:ख का संवेदन करते हैं लेकिन वे साता-असातारूप में योगियों को संविदित नहीं होता, ऐसा क्यों ? इसलिये कि वे सुख-दुख स्वभिन्न योगि-अनुभववेद्य है इसलिये । यदि योगी आदि को अन्य लोगों के सुख-दुख का साक्षात् स्वप्रकाशसंवेदन होता तब तो वे भी बीमार के दु:ख के संवेदन से स्वयं बीमार हो बैठेंगे । अथवा, अन्य के दुख के स्वप्रकाशसंवेदन करने पर भी यदि वे योगी बीमार न होगें तो दर्दीयों को भी योगियों की तरह स्वप्रकाशात्मक दुखादिसंवेदन होने पर भी कोई उपघात-अनुग्रह नहीं हो पायेगा, क्योंकि योगी के और अपने संवेदन में कोई फर्क नहीं है। यदि इस आपत्ति को टालने के लिये बीमार आदि लोगों के संवेदन को साता-असातादि रूप मान लेंगे तो अपने आप यह सिद्ध हो जायेगा कि सुखादि स्वसंवेदनरूप हैं। निष्कर्ष, अपना सुख या दुःख क्या है - यही कि साता अथवा असाता स्वरूप वेदन । अत: हमारे 'जो ज्ञानमय नहीं होते वे सुखादिमय भी नहीं होते' इस प्रयोग में हेतु साध्यद्रोही नहीं ठहरता ।
★ सुखादि में संवेदनरूपतासाधक हेतु की निर्दोषता* उपरांत, वह हेतु असिद्ध भी नहीं है । कारण, बाह्यार्थ मानने वाले सभी वादीयों को शब्दादि में ज्ञानमयता का अभाव स्वीकृत ही है । अन्यथा, शब्दादि में ज्ञानमयता का स्वीकार करने पर विज्ञानवादी के मत में अनुज्ञा हो जायेगी और ऐसा होने पर सांख्यवादी के बदले विज्ञानवादी का ही इष्ट सिद्ध होगा । हमारे प्रयोग में प्रयुक्त हेतु विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि सांख्यमत में आत्मा ज्ञानादिशून्य ही माना गया है अत: वही सपक्ष है, उस
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