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________________ ३६६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् न च उपचारकल्पनया तद्व्यपदेशसद्भावेऽपि वस्तुव्यवस्था, शब्दस्य वस्तुप्रतिबन्धाभावात् तद्भावेऽपि वस्तुसद्भावाऽसिद्धेः । यदपि 'भेदानामन्वयदर्शनात् प्रधानास्तित्वम्' उक्तम् (३०३-६) तत्र हेतोरसिद्धत्वम्, न हि शब्दादिलक्षणं व्यक्तं सुखाद्यन्वितं सिद्धम् सुखादीनां ज्ञानरूपत्वात् शब्दादीनां च तद्रूपविकलत्वात् न सुखाद्यन्वितत्वम् । तथा च प्रयोगः, ये ज्ञानरूपविकलाः न ते सुखाद्यात्मकाः यथा परोपगत आत्मा, ज्ञानरूपविकलाश्च शब्दादयः - इति व्यापकानुपलब्धिः । अथ ज्ञानमयत्वेन सुखादिरूपत्वस्य व्याप्तिर्यदि सिद्धा भवेत् तदा तनिवर्त्तमानं सुखादिमयत्वमादाय निवर्तेत, न च सा सिद्धा पुरुषस्यैव संविद्रूपत्वेनेष्टेरिति । असदेतत् - सुखादीनां स्वसंवेदनरूपतया स्पष्टमनुभूयमानत्वात् । तथाहि - स्पष्टेयं सुखादीनां प्रीति-परितापादिरूपेण शब्दादिविषयसंनिधानेऽसंनिधाने च प्रकाशान्तरनिरपेक्षा प्रकाशात्मिका स्वसंवित्तिः। यच्च प्रकाशान्तरनिरपेक्षं सातादिरूपतया स्वयं सिद्धिमवतरति तत् 'ज्ञानम्' 'संवेदनम्' 'चैतन्यम्' 'सुखम्' इत्यादिभिः पर्यायैरभिधीयते । न च सुखादीनामन्येन संवेदनेनानुभवादनुभवरूपता प्रथते, तत्संवेदनस्याऽसातादिरूपताप्रसक्तेः स्वयमतदात्मकत्वात् । तथाहि - योगिनः अनुमानवतो वा परकीयं सुखादिकं संवेदयतो न सातादिरूपता अन्यथा योग्यादयोऽपि साक्षात् सुखाद्यनुभाविन इवातुरादयः स्युः अस्तित्व क्यों नहीं होगा ?' तो इस का उत्तर यह है कि उपचार होने पर, कारण में कार्य का व्यपदेश ही केवल अस्तित्व पाता है, न कि वह कार्यरूप वस्तु का सद्भाव । शब्द का वस्तु के साथ कोई अविनाभावरूप सम्बन्ध नहीं है कि जिस से शब्दव्यवहार के होने पर वस्तु के सद्भाव की सिद्धि को भी अवकाश मिल जाय । ★ भेदान्वयदर्शन हेतु में असिद्धि-उद्भावन* पहले जो यह कहा था - [३०३-२६] 'भेदों में अन्वयदर्शन होता है। कार्य जिस जाति का होता है उसी जातिवाले कारण से वह उत्पन्न होता है अत: सुख-दुःख मोहादिजातिसमन्वित व्यक्त तत्त्व तथाविध प्रधान से ही उत्पन्न हैं - इस प्रकार प्रधान की सिद्धि की गयी थी' - वहाँ हेतु में असिद्धि दोष है । शब्दादि व्यक्त तत्त्व सुखआदिमय होने की बात सिद्ध नहीं है । सुखादि तो ज्ञानमय यानी संवेदनमय होते हैं जब कि शब्दादि ज्ञानमयता से शून्य होते हैं । अनुमान प्रयोग : 'जो ज्ञानमयता से शून्य होते हैं वे सुखादिमय नहीं होते जैसे सांख्यमत में आत्मा । शब्दादि, ज्ञानमयता से शून्य हैं, इसलिये सुखादिमय नहीं हो सकते ।' हेतु इस प्रयोग में व्यापकानुपलब्धिरूप है । सुखादिमयता व्याप्य है और ज्ञानमयता व्यापक है, व्यापक की अनुपलब्धि व्याप्य-सुखादिमयता के अभाव को सिद्ध करती है । सांख्य : यदि सुखादिमयता और ज्ञानमयता में क्रमश: व्याप्य-व्यापकभाव सिद्ध होता तब तो सच है कि ज्ञानमयता निवृत्त होती हुयी सुखादिमयता को लेकर निवृत्त होती । वास्तविकता यह है कि पुरुष में ही संवेदनशीलता मान्य है न कि सुखादि में । पर्यायवादी : यह कथन गलत है । स्पष्ट ही अनुभव होते है कि सुखादि स्वसंवेदनमय यानी स्वयं वेदि होती हैं । अनुकुल-प्रतिकुल संवेदनमय ही सुख-दुख हैं यह कौन नहीं मानता ? देखिये - शब्दादि विषयों का संनिधान चाहे हो या न हो, किन्तु परत:प्रकाशी न होने के कारण स्वभित्रज्ञान से अवेद्य ऐसे अनुकुल संवेदनात्मक प्रीति का और प्रतिकुल संवेदनात्मक परिताप का स्वयंप्रकाशस्वरूप संवेदन सभी को होता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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