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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सन् इति कल्पनाद्वयम् । असत्त्वे पूर्ववत् साधनानामनैकान्तिकता वाच्या, सत्त्वे च साधनवैयर्थ्यम् तत्रापि अभिव्यक्त्यभ्युपगमे 'केयमभिव्यक्तिः' इत्याद्यनवस्थाप्रसंगो दुर्निवार इति व्यतिरेकपक्षोऽपि संगत्यसम्भवादसम्भवी । अतो न स्वभावातिशयोत्पत्तिरभिव्यक्तिः ।
नापि तद्विषयज्ञानोत्पत्तिस्वरूपा अभिव्यक्तियुक्तिसंगता, तद्विषयज्ञानस्य भवदभिप्रायेण नित्यत्वात् । तथाहि - तद्विषयापि संवित्तिः सत्कार्यवादिमतेन नित्यैव किमुत्पाद्यं तस्याः स्यात् ? अपि च एकैव भवन्मतेन संविद् 'आसर्गप्रलयादेका बुद्धिः' [ ] इति कृतान्तात्, सैव च निश्चयः तत्र कोऽपरस्तदुपलम्भोऽभिव्यक्ति स्वरूपो यः साधनैः सम्पाद्येत ? न च (न) तद्बुद्धिस्वभावा तद्विषया संवित्तिः किंतु मनःस्वभावेति वक्तव्यम् 'बुद्धिः-उपलब्धिः-अध्यवसायः-मनः-संवित्तिः' इत्यादीनामनर्थान्तरत्वेन प्रदर्शयिष्यमाणत्वात् । तदभिन्न स्वभावातिशय भी पूर्वावस्थित होने से उस के प्रादुर्भाव की बात कभी युक्तिसंगत नहीं होगी । यदि वह पृथक् है, तब 'निश्चय का स्वभावातिशय' ऐसा षष्ठीप्रयोग सम्बन्ध के विना संगत नहीं होगा । सम्बन्ध भी होगा तो आधाराधेयभावरूप होगा या जन्यजनकभावरूप ? पहला सम्बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि एकदूसरे में उपकारक-उपकार्य भाव न रहने पर आधार आधेयभाव सम्बन्ध नहीं हो सकता । यदि निश्चय का स्वभावातिशय की ओर (या स्वभावातिशय का निश्चय की ओर) कोई उपकार मानेंगे तो वहाँ भी वह उपकार भिन्न है या अभित्र - इन विकल्पों का सामना करना होगा । भिन्न मानेंगे तो पुन: पूर्ववत् सम्बन्ध की अनुपपत्ति दोष होगा, सम्बन्ध के लिये अन्य उपकार की कल्पना में अनवस्था दोष लगेगा, क्योंकि उस अन्य उपकार के लिये भी अपर-अपर उपकार की कल्पना करनी होगी । यदि अभिन्न मानेंगे तो निश्चय-अभिव्यक्ति के लिये किया जाने वाला हेतुप्रयोग निरर्थक ठहरेगा । कैसे यह देखिये, स्वभावातिशय में निश्चय के द्वारा अपने से अभिन्न उपकार उत्पन्न होगा, इसका मतलब है कि उपकारभिन्न स्वभावातिशय ही निश्चय से उत्पन्न होगा। इस स्थिति में, जब पूर्वावस्थित निश्चय से ही अभिव्यक्तिस्वरूप स्वभावातिशय को उत्पन्न होना है तब हेतुप्रयोग की क्या आवश्यकता ? दूसरी बात यह है कि वह अतिशय तो अमूर्त पदार्थ होने से गुरुत्वशून्य है इसलिये उसके अधोगमन का सम्भव ही नहीं है; अत एव 'अधोगति का प्रतिबन्धक' रूप आधार भी असम्भव है, फलत: आधाराधेयभाव सम्बन्ध ही यहाँ सम्भव नहीं है। विद्वानों ने यह स्थापित किया हुआ है कि जो अधोगति को रोकता है वही आधार है।
जन्य-जनकभावरूप सम्बन्ध भी यहाँ संगत नहीं है । कारण, यदि स्वभावातिशय की उत्पत्तिजन्य-जनकभावरूप सम्बन्धसंज्ञक (अथवा निश्चयसंज्ञक) कारण पर अवलम्बित होगी तो सदा उसकी उत्पत्ति होती ही रहेगी क्योंकि वह सम्बन्ध (?निश्चयात्मक कारण) सत् रूप होने से सदा के लिये उपस्थित है । यदि कहा जाय - 'निश्चयात्मक कारण तो सदा उपस्थित है किन्तु उक्त हेतुप्रयोग भी अतिशयोत्पत्ति में अपेक्षित है, अत: उसके अभाव में सदा उसकी उत्पत्ति का अनिष्ट नहीं होगा'- तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि निश्चय का अनुपकारक हेतुप्रयोग कभी अपेक्षणीय नहीं हो सकता । यदि हेतुप्रयोग से निश्चय का कोई उपकार मानेंगे तो पूर्ववत् भिन्न-अभिन्न विकल्पों में कहे हैं ऐसे दोष प्रसक्त होंगे।
तथा, यह भी विचारणीय है- पृथक् अतिशय असत् हो कर उत्पन्न होता है या सत् होकर उत्पन्न होता है ? यदि असत् अतिशय उत्पन्न होगा, तब तो पूर्वोक्त हेतुपंचक इसी स्थल में साध्यद्रोही बन बैठेगा । यदि सत् अतिशय उत्पन्न होता है तब तो कारणों में निरर्थकता की विपदा खडी है । यदि कहें कि- 'कारणों से
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