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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
३५५ अथ व्यतिरिक्तस्तथापि तस्यासौ' इति सम्बन्धानुपपत्तिः । तथाहि - आधाराधेयलक्षणः जन्यजनकस्वभावो वासौ भवेत् ? न तावत् प्रथमः, परस्परमनुपकार्योपकारकयोस्तदसम्भवात्, उपकाराभ्युपगमे चोपकारस्यापि पृथग्भावे सम्बन्धासिद्धिः - अपरोपकारकल्पनायां चानवस्थाप्रसक्तिः - अपृथग्भावे च साधनोपन्यासवैयर्थ्यम् निश्चयादेवोपकारापृथग्भूतस्यातिशयस्योत्पत्तेः । न चातिशयस्य कश्चिदाधारो युक्तः अमूर्त्तत्वेनाधःप्रसर्पणाभावात् अधोगतिप्रतिबन्धकत्वेनाधारस्य व्यवस्थानात् । जन्यजनकभावलक्षणोऽपि न सम्बन्धो युक्तः सर्वदैव सम्बन्धाख्यस्य (निश्चयाख्यस्य) कारणस्य सनिहितत्वान्नित्यमतिशयोत्पत्तिप्रसक्तेः । न च साधनप्रयोगापेक्षया निश्चयस्यातिशयोत्पादकत्वं युक्तम् अनुपकारिण्यपेक्षाऽयोगात्, उपकाराभ्युपगमे वा दोषः पूर्ववद् वाच्यः । अपि च अतिशयोपि पृथग्भूतः क्रियमाणः किमसन् क्रियते आहोस्वित् हो जायेगा । इस प्रकार कपिलऋषि के भक्तों की ओर से किया जाने वाला हर कोई हेतुप्रयोग निरर्थक ठहरेगा।
*सत्कार्यवाद में वदतो व्याघात ★ सत्कार्यवाद में अपने ही वचन का विरोध प्रसक्त होता है । कैसे यह देखिये - निश्चय उत्पन्न करने के लिये हेतुप्रयोग करनेवाले असत् निश्चय की उत्पत्ति को मान कर ही हेतुप्रयोग कर सकते हैं, फिर दूसरी ओर 'कार्य सत् है' इस प्रतिज्ञा के द्वारा असत् की उत्पत्ति का स्वयं निषेध करते हैं, अत: अपने वचन का अपने मत में स्पष्ट विरोध है। यदि अपने हेतप्रयोग की निरर्थकता दूर करने के लिये, असत् निश्चय की हेतु प्रयोग से उत्पत्ति होने का स्वीकार कर लेंगे तो - सत् कार्य की सिद्धि के लिये प्रयुक्त असदकरण आदि पाँचो हेतु उस निश्चयस्थल में साध्यद्रोही बन जायेंगे यह अपने आप घोषित हो जायेगा, क्योंकि निश्चय तो असत् ही उत्पन्न होने वाला है और उसकी तरह अन्य भी कार्य असत् उत्पन्न हो सकते हैं, उसमें कोई विरोध नहीं हो सकता । कैसे यह देखिये - असत् निश्चय का करण मान्य किया है । तथा, असत् निश्चय उपजाने के लिये आपने (उपादान के बदले) विशिष्ट हेतुप्रयोग का आलम्बन लिया । आपने यह भी मान लिया कि असत् भी निश्चय ठोस हेतुप्रयोग से ही हो सकता है न कि हर किसी से, खास कर हेत्वाभासप्रयोग से । यह भी स्वीकार लिया कि असत् निश्चय भी अपने शक्तिशाली हेतुओं से निपज सकता है । तथा असत् निश्चय को निपजाने के लिये हेतुप्रयोगादि में कारणभाव भी मान लिया । अब कहिये कि असदकरण आदि पाँचो हेतु असत् निश्चय स्थल में साध्यद्रोही कैसे नहीं है ? सत् कार्य की सिद्धि के लिये हेतुरूप से प्रयुक्त असदकरण आदि साधन असत् निश्चय रूप विपक्ष में रह जाते हैं।
सांख्य :- हेतुप्रयोग के पूर्व वह निश्चय असत् नहीं है, सत् है । 'तो फिर हेतुप्रयोग निष्फल होगा' ऐसी बात नहीं है, क्योंकि हेतुप्रयोग के पहले वह निश्चय अनभिव्यक्त था जो अब हेतुप्रयोग से अभिव्यक्त होता है । निश्चय को अभिव्यक्त करने में ही हेतुप्रयोग की सार्थकता है, इसलिये हेतुप्रयोग निष्फल नहीं होगा।
पर्यायवादी :- यह वक्तव्य अनुचित है, क्योंकि हेतु प्रयोग के पहले अभिव्यक्ति असिद्ध यानी असत् होती है । देखिये, अभिव्यक्ति का क्या मतलब ? Aस्वभाव में अक नये अतिशय का प्रादुर्भाव, Bअथवा अज्ञात विषय का ज्ञान होना C अथवा विषयोपलब्धिवारक का दूर हठ जाना ? ये तीन विकल्प हैं ।
★ अभिव्यक्ति स्वभावातिशयोत्पत्तिरूप नहीं ★ A- स्वभाव में अतिशय का प्रादुर्भाव, अभिव्यक्ति का यह प्रथम विकल्प संगत नहीं है, क्योंकि स्वभावातिशय क्या निश्चय के स्वभाव से पृथक् है या अभिन्न है ! यदि अभिन्न है, तो जैसे निश्चय पूर्वावस्थित है वैसे ही
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