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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
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रंगीकृता भवेत् 'सत् कार्यम्' इति च प्रतिज्ञया सा निषिद्धेति स्ववचनविरोधः स्पष्ट एव । अथ साधनप्रयोगवैयर्थ्यं मा प्रापदिति निश्चयोऽसन्नेव साधनादुत्पद्यत इत्यंगीक्रियते तर्हि 'असदकरणात्' इत्यादेर्हेतुपंचकस्यानैकान्तिकता स्वत एवाभ्युपगता भवति, निश्चयवत् कार्यस्याप्यसत उत्पत्त्यविरोधात् । तथाहि
यथा निrयस्य असतोsपि करणम् तदुत्पत्तिनिमित्तं च यथा विशिष्टसाधनपरिग्रहः न च यथा तस्य सर्वस्मात् साधनाभासादेः सम्भवः यथा चासन्नप्यसौ शक्तैर्हेतुभिर्निर्वत्र्त्यते, यथा च कारणभावो हेतूनां समस्ति तथा कार्येऽपि भविष्यति इति कथं नानैकान्तिका निश्वयेन 'असदकरणात्' – इत्यादिहेतवः । न च यद्यपि प्राक्साधनप्रयोगात् सन्नेव निश्वयः तथापि न साधनवैयर्थ्यम् यतः प्रागनभिव्यक्तो निश्वयः पश्चात् साधनेभ्यो व्यक्तिमासादयतीत्यभिव्यक्त्यर्थं साधनप्रयोगः सफलः इति नानर्थक्यमेषामिति वक्तव्यम्, व्यक्तेरसिद्धत्वात् । तथाहि किं स्वभावातिशयोत्पत्तिरभिव्यक्तिरभिधीयते, आहोश्चित् तद्विषयं ज्ञानम् उत “तदुपलम्भावारकापगमः इति पक्षाः ।
"तत्र न तावत् स्वभावातिशयोत्पत्तिरभिव्यक्तिः । यतोऽसौ स्वभावातिशयो निश्चयस्वभावादव्यतिरिक्तः स्याद् व्यतिरिक्तो वा ? यद्यव्यतिरिक्तस्तदा निश्चयस्वरूपवत् तस्य सर्वदैवाबस्थितेर्नोत्पत्तिर्युक्तिमती । होने वाले पदार्थ के निष्पादन की स्थापना सम्भव होती, किन्तु साध्यत्व के विरह में वह सम्भव नहीं है । सत्कार्यवाद की सिद्धि के लिये प्रयुक्त पश्चम हेतु 'कारणभाव' भी उस मत संगत नहीं होगा, क्योंकि साध्य ही कोई नहीं है । जगत् में कहीं भी कारण कार्यभाव ही न हो, साध्य ही कोई न हो, न कोई उपादान का ग्रहण करता हो.... इत्यादि कहीं भी देखा नहीं जाता और न वैसा किसी को इष्ट भी है। इस से विपरीत ही देखा जाता है और सभी को वैसा इष्ट भी है किन्तु वह सत्कार्यवाद में संगत नहीं होता इस लिये उक्त प्रसंग का विपर्यय यह फलित होता है कि कारणावस्था में कार्य सत् नहीं होता । सदकरण, उपादानग्रहण.. इत्यादि पाँचो सत्कार्यवाद में प्रसंगसाधन के रूप में प्रयुक्त है जो निष्कर्ष के रूप में उक्त विपर्यय को फलित करता है कि सत्कार्यवाद असंगत है।
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★ संशयनिवृत्ति की और निश्वयोत्पत्ति की अनुपपत्ति ★
यह ज्ञातव्य है कि अपने क्षेत्र में होने वाला कोई भी हेतुप्रयोग दो काम करता है - A अपने अनुमेयात्मक प्रमेयरूप अर्थ के बारे में पूर्व में उत्पन्न होने वाले संशय अथवा विपर्यास ( = भ्रान्ति) को निवृत्त करता है B अपने साध्य के विषय में यथार्थ निश्चय उत्पन्न करता है । सत्कार्यवाद में ये दोनों काम युक्तिसंगत नहीं हो पाते । कैसे यह देखिये - संदेह और विपर्यास को आप चैतन्यस्वभाव मानते हैं या बुद्धि - मन: स्वरूप ? चैतन्यस्वभाव मानना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि आप के मत में संशय विपर्यास को चैतन्यमय नहीं माना गया । यदि चैतन्यमय मानेंगे तो मुक्ति अवस्था में चैतन्य अक्षुण्ण रहता है इसलिये चैतन्यस्वभावात्मक संशय- विपर्यास भी उत्पन्न होते ही रहेंगे, निवृत्त नहीं होंगे, फलतः मोक्ष ही सम्पन्न नहीं होगा । किसी कारणव्यापार से भी उनकी निवृत्ति नहीं हो पायेगी, क्योंकि नित्यचैतन्य से अभिन्न होने के नाते चैतन्य की भाँति उनकी निवृत्ति शक्य नहीं । दूसरा विकल्प भी सत्कार्यवाद में संगत नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृति - अभिन्न होने के नाते बुद्धि और मन तो नित्य तत्त्व हैं इसलिये बुद्धिस्वभाववाले अथवा मन: स्वभाववाले संशय- विपर्यास भी नित्य बन गये, फलतः उनकी निवृत्ति नहीं हो पायेगी । प्रथम कारण जैसे असंगत है वैसे दूसरा काम अपने साध्य के निश्चय की उत्पत्ति यह भी हेतु प्रयोग से सम्भव नहीं है, क्योंकि उत्पन्न किया जाने वाला निश्चय भी सत्कार्यवाद में सर्वदा सिद्ध ही है, यदि निश्चय को सर्वदा सिद्ध नहीं मानेंगे - उत्पत्ति के पूर्व असत् मानेंगे तो सत्कार्यवाद समाप्त
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