SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ ३५३ किंचित् केनचिदभिनिवर्खेत तदा निवर्त्तकस्य शक्तिर्व्यवस्थाप्यते निवर्त्यस्य च कारणं सिद्धिमध्यासीतेति, नान्यथा । कारणभावोऽपि भावानां साध्याभावादेव सत्कार्यवादे न युक्तिसंगतः । न चैतद् दृष्टमिष्टं च । तस्माद् न सत् कार्य कारणावस्थायामिति प्रसंगविपर्ययः पञ्चस्वपि प्रसंगसाधनेषु योज्यः । अपि च, सर्वमेव हि साधनं स्वविषये प्रवर्त्तमानं द्वयं विदधाति, स्वप्रमेयार्थविषये उत्पद्यमानौ संशय-विपर्यासौ निवर्त्तयति, स्वसाध्यविषयं च निश्चयमुपजनयति । न चैतत् सत्कार्यवादे युक्त्या संगच्छते । तथाहि - संदेह-विपर्यासौ भवद्भिः किं चैतन्यस्वभावावभ्युपगम्येते, आहोश्विद् बुद्धि-मनःस्वरूपौ ? तत्र यदि प्रथमः पक्षः, स न युक्तः, चैतन्यरूपतया तयोर्भवद्भिरनभ्युपगमात्, अभ्युपगमे वा मुक्त्यवस्थायामपि चैतन्याभ्युपगमात् तत्स्वभावयोस्तयोरनिवृत्तेरनिर्मोक्षप्रसंगः, साधनव्यापारात् तयोरनिवृत्तिश्च चैतन्यवनित्यत्वात् । द्वितीयपक्षोऽपि न युक्तः, बुद्धिमनसोर्नित्यत्वेन तयोरपि नित्यत्वानिवृत्त्ययोगात् । न च निश्चयोत्पत्तिरपि साधनात् सम्भवति, तस्या अपि सर्वदाऽवस्थितेः अन्यथा सत्कार्यवादो विशीर्येत इति साधनोपन्यासप्रयासो विफलः कापिलानाम् ।। स्ववचनविरोधश्च प्राप्नोति । तथाहि- निश्चयोत्पादनार्थं साधनं ब्रुवता निश्चयस्य असत उत्पत्तिगया है वह निरवकाश है । दूसरे प्रयोग में 'जिस का कोई साध्य नहीं है' यह हेतु असिद्धि दोष से ग्रस्त है क्योंकि बीजादि के लिये अंकुर की अभिव्यक्ति का उद्रेक अथवा नाशक हेतु के संनिधान में उस का अनुद्रेक यानी तिरोभाव आदि साध्य अविद्यमान नहीं किन्तु विद्यमान है। पर्यायवादी : यह वक्तव्य ठीक नहीं है । कारण, यहाँ दो विकल्पों का सामना करना होगा - अभिव्यक्तावस्था के पहले वह अभिव्यक्ति आदि संस्कार अस्तित्व में था या नहीं ? यदि था तब तो अभिव्यक्तरूप से भी कार्य वहाँ सत् होने के कारण, हमारे प्रथम प्रयोग के 'सर्व प्रकार से सत्त्व' हेतु में असिद्धि का दोष सावकाश नहीं होगा। यदि पहले वह संस्कार नहीं था, यानी असत् था, तब तो कारणसमूह से भी वह कैसे उत्पन्न होगा, जब कि आप असत् का करण (= निष्पादन) तो मानते ही नहीं हो । सारांश उक्त दो प्रसंगापादन स्वरूप प्रयोगों से यह फलित होता है सत् का करण (= निष्पादन) शक्य न होने से, उत्पत्ति के पूर्व कार्य सत् नहीं हो सकता । ★ साध्यत्व न होने पर उपादानग्रहणादि निष्फल ★ पूर्वोक्त प्रथम प्रयोग से यह स्पष्ट है कि सत्कार्यवाद मान लेने पर महत् आदि या दहीं आदि में साध्यत्व ही नहीं बचता । जब वे साध्य ही नहीं है तो उपादान कारण का आदर भी कौन करेगा ? दहीं आदि साध्य फल की आशा में ही जानकार लोग दुग्धादि उपादान का संग्रह करते हैं, किन्तु साध्य ही नहीं होगा तो कौन उस के संग्रह का निरर्थक कष्ट ऊठायेगा ? 'सभी पदार्थों से सब का उद्भव नहीं होता किन्तु नियत दुग्धादि हेतु से ही दही आदि होते हैं। यह बात भी दहीं आदि का साध्यत्व छीन जाने पर संगत नहीं हो सकेगी । सत्कार्यवादी ने जो तीसरा हेतु कहा था 'सर्वसम्भवाभाव', उस का तात्पर्य तो यही है कि नियत कारणों से नियत कार्य का जन्म । किन्तु जब दहीं आदि साध्य ही नहीं रहे, तब सत्कार्यवाद में नियतकारणजन्यत्व भी संगत नहीं हो सकता। तथा 'शक्तस्य शक्यकरणात्' (कार्यजननशक्ति जिस में होती है वही शक्य कार्य को उत्पन्न करता है) यह भी सत्कार्यवाद में संगत नहीं हो सकता, क्योंकि सत्कार्यवाद में कोई कारणसाध्य तत्त्व ही नहीं है । यदि कोई पदार्थ ऐसा होता जो किसी से निष्पन्न हो, तब निष्पादक पदार्थ में जननशक्ति की स्थापना एवं निष्पन्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy