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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ "तद्विषयोपलम्भावरणक्षयलक्षणाप्यभिव्यक्तिर्न घटां प्राञ्चति, द्वितीयस्योपलम्भस्याऽसम्भवेनोपलम्भावरणस्याप्यभावात् न ह्यसतः आवरणं युक्तिसंगतम् तस्य वस्तुसद्विषयत्वात् । न चासतस्तदावरणस्य कुतश्चित् क्षयो युक्तः । सत्त्वेऽपि तदावरणस्य नित्यत्वाद् न क्षयः सम्भवी, ति(रो)भावलक्षणोपि क्षयस्तस्याऽयुक्तः अपरित्यक्तपूर्वरूपस्य तिरोभावानुपपत्तेः । तद्विषयोपलम्भस्य सत्त्वेपि नित्यत्वान्नावरणसम्भव इति कुतस्तत्क्षयोऽभिव्यक्तिः ? न चाप्यावरणक्षयः केनचिद् विधातुं शक्यः, तस्य निःस्वभावत्वात् । ततोऽभिव्यक्तेरघटमानत्वात् सत्कार्यवादपक्षे साधनोपन्यासवैयर्थ्यम् । ___ एवं बन्ध-मोक्षाभावप्रसंगश्च तत्पक्षे । तथाहि - प्रधानपुरुषयोः कैवल्योपलम्भलक्षणतत्त्वज्ञानप्रादुर्भावे सति अपवर्गः कापिलैरभ्युपगम्यते, तच्च तत्त्वज्ञानं सर्वदा व्यवस्थितमेवेति सर्व एव देहिनोऽपवृक्षाः(?क्ताः) स्युः । अत एव न बन्धोऽपि तत्पक्षे संगतः मिथ्याज्ञानवशाद्धि बन्ध इष्यते तस्य च सर्वदा व्यवस्थितत्वात् सर्वेषां देहिनां बद्धत्वमिति कृतो मोक्षः ? लोकव्यवहारोच्छेदश्च सत्कार्यवादाभ्युपगमे । तथाहि - हिताऽहितप्राप्तिपरिहाराय लोकः प्रवर्त्तते, न च तत्पक्षे किंचिदप्राप्यम् अहेयं वा समस्तीति निर्व्यापारमेव सकलं जगत् स्यादिति कथं न सकलव्यवहारोच्छेदप्रसंगः ? सत् अतिशय की 'उत्पत्ति' नहीं- अभिव्यक्ति होती है इसलिये निरर्थकता नहीं होगी'- तो यहाँ फिर से वही प्रश्नपरम्परा कि वह अभिव्यक्ति स्वभावातिशयोत्पत्तिरूप है या... इत्यादि आवर्तित होगी । तात्पर्य, निश्चयस्वभाव से भिन्न स्वभावातिशय पक्ष दोषग्रस्त होने से असंगत है और सम्भवित विकल्पों की असंगति के कारण, अभिव्यक्ति स्वभावातिशयउत्पत्तिरूप मानना भी अयुक्त है । ★ अभिव्यक्ति निश्चयविषयकज्ञानरूप नहीं हो सकती★ ___Bअभिव्यक्ति यानी निश्चय के विषय में ज्ञान की उत्पत्ति; यह अर्थ युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि किसी भी विषय का ज्ञान भी सांख्यवाद में नित्य ही है। कैसे यह देखिये- सत्कार्यवाद के अनुसार किसी भी विषय का संवेदन नित्य ही होता है, नित्य अपने आप में परिपूर्ण ही होता है, उस में क्या नया उत्पन्न करायेंगे? तथा, आप के मत में तो संवेदन समग्ररूप में एक ही है, कि 'सृष्टि से प्रलय तक बुद्धि एक ही होती है ।' यह आपके ही सिद्धान्त में कहा गया है । बुद्धि और निश्चय तो एक ही है, अभिव्यक्ति स्वरूप जो उपलम्भ है निश्चय का, वह क्या बुद्धि से अलग है जिस को आप हेतुप्रयोग से निपजाना चाहते हैं ? यदि कहें कि"निश्चय का संवेदन बुद्धिस्वभाव नहीं है । किंतु मन:स्वभाव है ।'- यह ठीक नहीं है, क्योंकि अग्रिम ग्रन्थ में यह स्पष्ट किया जायेगा कि बुद्धि-उपलब्धि-अध्यवसाय-मन-संवेदन इत्यादि शब्द सब एकार्थक ही हैं । * अभिव्यक्ति आवरणविनाशरूप नहीं★ अभिव्यक्ति यानी निश्चयविषयक उपलम्भ के आवरण का विनाश, यह अर्थ भी घट नहीं सकता । कारण, निश्चय स्वयं ही स्वप्रकाश उपलम्भ स्वरूप है अत: निश्चयविषयक और कोई उपलम्भ ही सम्भव नहीं है तो उसके आवरण के सम्भव की और उसके विनाश की बात ही कहाँ ? तथा उपलम्भ असत् है तो उसका आवरण युक्तिसंगत नहीं हो सकता, क्योंकि आवरण तो सद् वस्तु का होता है । असद् वस्तु का तो आवरण भी असत् रहेगा और असत् आवरण का किसी से विनाश होना- यह भी अयुक्त है। यदि आवरण सत् है तो सांख्य मत में सत् सब नित्य होता है, नित्य होने से उस का विनाश असम्भव है । विनाश यानी तिरोभाव, ऐसा अर्थ भी संगत नहीं है क्योंकि पूर्वरूप के परित्याग (यानी विनाश) के विना तिरोभाव भी घट नहीं सकता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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