________________
द्वितीयः खण्डः - का० - ३
३४९
तिरिक्तधर्मान्तरोत्पाद - विनाशे सति परिणामो भवद्भिर्व्यवस्थापितः । किं तर्हि ? यत्रात्मभूतैकस्वभावानु - वृत्तिः अवस्थाभेदश तत्रैव तद्व्यवस्था । न च धर्मिणः सकाशाद् धर्मयोर्व्यतिरेके सति एकस्वभावानुवृतिरस्ति । यतो धर्म्येव तयोरेक आत्मा, स च व्यतिरिक्त इति नात्मभूतैकस्वभावानुवृत्तिः । न च निरुध्यमानोत्पद्यमानधर्मद्वयव्यतिरिक्तो धर्मी उपलब्धिलक्षणप्राप्तो दृग्गोचरमवतरति कस्यचिदिति तादृशो - Sसद्व्यवहारविषयतैव
अथ अनर्थान्तरभूत इति पक्षः कक्षीक्रियते तथाप्येकस्माद् धर्मिस्वरूपादव्यतिरिक्तत्वात् तिरोभावाऽऽविर्भाववतोर्धर्मयोर्द्वयोरप्येकत्वम् धर्मिस्वरूपवदिति केन रूपेण धर्मी परिणतः स्यात् धर्मो वा ? अवस्थातुश्च धर्मिणः सकाशादव्यतिरेकाद् धर्मयोरवस्थातृस्वरूपवन्न निवृत्तिः नापि प्रादुर्भावः । धर्माभ्यां च धर्मिणोऽनन्यत्वात् धर्मस्वरूपवत् अपूर्वस्य चोत्पादः पूर्वस्य च विनाशः इति नैकस्य कस्यचित् परिणतिः सिद्धयेदिति न परिणामवशादपि सांख्यानां कार्य-कारणव्यवहारः संगच्छते । न च परिणामप्रसाधकं प्रमाणं क्षणिकम् अक्षणिकं वा सम्भवतीति प्रतिपादितमभेदनिराकरणं कुर्वद्भिः ।
सम्बद्ध नहीं है । वस्तु से सम्बद्ध धर्मों के उत्पाद - विनाश से ही उस असम्बद्ध धर्मों के उत्पाद - विनाश से नहीं ।
सांख्य :- कट एवं वस्त्र, घट से वस्तु का परिणाम परिणाम माना जाता है, पर्यायवादी : यह कथन ठीक नहीं, क्योंकि अनुत्पन्न या विनष्ट धर्म तो असत् है, असत् के साथ सत् का कोई सम्बन्ध नहीं होता तो तत्सम्बन्धित्व भी कैसे हो सकता है ? अतः किसी भी धर्म में स्वधर्मसम्बद्धव की संगति नहीं हो सकती ।
★ सत् या असत् से सम्बन्ध अघटित ★
कैसे सम्बन्ध नहीं घटता यह देखिये - दो कल्पना हो सकती है, सम्बन्ध या तो सत् के साथ होगा या असत् के साथ । सत् का सम्बन्ध शक्य नहीं, क्योंकि सम्बन्ध यानी परतन्त्रता, जिसने अपने संपूर्ण स्वभाव को आत्मसात् कर लिया हो वही सत् है, ऐसा सत् परसापेक्ष न रहने से क्यों किसी का भी सम्बन्धि यानी परतन्त्र बनेगा ? असत् का भी सम्बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि असत् तो सर्व उपाख्या से यानी वास्तव स्वरूप से शून्य होता है इस लिये वह किसी का आश्रित - परतन्त्र या सम्बन्धि कभी नहीं हो सकता । कभी शशसींग को किसी का आश्रित बना हुआ किसीने देखा है क्या ?
यह भी ज्ञातव्य है कि सांख्यवादी ने भिन्न भिन्न एक धर्म का उत्पाद, दूसरे का विनाश प्रदर्शित कर के परिणाम की स्थापना कभी नहीं की । तो कैसे की है ? उत्तर : जहाँ अवस्था के साथ तादात्म्यापन एक स्वभाव स्थायि बना रहता है फिर भी अवस्थाएँ बदलती रहती है उसी में परिणाम की स्थापना की है। दो धर्म यदि धर्मी से सर्वथा पृथक् हैं तब तो उन से तादात्म्यापन एक स्वभाव का स्थायि बना रहना घटता ही नहीं है । क्योंकि, वह जिस का आत्मभूत है उस को तादात्म्यापन कहा जाता है, दो धर्मों का धर्मी ही उनका आत्मभूत हो सकता है किन्तु जब धर्मी को धर्मों से पृथक् माना तब तो आत्मभूत एक स्वभाव का स्थायि बना रहना संभव ही नहीं, क्योंकि उन धर्मों का कोई आत्मभूत धर्मी ही नहीं है । दूसरी ओर, निवर्त्तमान एवं उत्पन्न होनेवाले दो धर्मों से सर्वथा पृथक् कोई धर्मी, उपलब्धियोग्यता के होते हुए भी किसी को दृष्टिगोचर नहीं होता, इसलिये धर्मों से पृथक् धर्मी अन्ततः असद्व्यवहार का ही अतिथि बन जायेगा ।
अब यदि कहा जाय कि धर्मी से धर्म अर्थान्तरभूत यानी पृथक् नहीं है, तो धर्मी के स्वरूप की तरह
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org