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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् न तस्यैवान्यथात्वं युक्तम्, तस्य स्वभावान्तरोत्पादनिबन्धनत्वात् । “व्यवस्थितस्य धर्मिणो धर्मान्तरनिवृ. तौ धर्मान्तप्रादुर्भावलक्षणः परिणामोऽभ्युपगम्यते न तु स्वभावान्यथात्वमि"ति चेत् ? असदेतत् • यतः प्रच्यवमानः उत्पद्यमानश्च धर्मो धर्मिणोऽर्थान्तरभूतोऽभ्युपगन्तव्यः अन्यथा धर्मिण्यवस्थिते तस्य तिरोभावाविर्भावासम्भवात् । तथाहि - यस्मिन् वर्तमाने यो व्यावर्त्तते स ततो भिन्नः यथा घटेऽनुवर्तमाने ततो व्यावर्त्यमानः पटः, व्यावर्त्तते च धर्मिण्यनुवर्तमानेप्याविर्भाव-तिरोभावाऽऽसङ्गी धर्मकलाप इति कथमसौ ततो न भिन्न इति धर्मी तदवस्थ एवेति कथं परिणतो नाम ? यतो नार्थान्तरभूतयोः कट-पटयोरुत्पाद-विनाशेऽचलितरूपस्य घटादेः परिणामो भवति अतिप्रसंगात् अन्यथा चैतन्यमपि परिणामी स्यात् । 'तत्सम्बद्धयोर्धर्मयोरुत्पाद-विनाशात् तस्यासावभ्युपगम्यते नान्यस्य' इति चेत् ? न, सदसतोः सम्बन्धाभावेन तत्सम्बन्धित्वाऽयोगात् ।।
तथाहि - सम्बन्धो भवन् 'सतो वा भवेत् असतो वा भवेद्' इति कल्पनाद्वयम् । न तावत् सतः, समधिगताऽशेषस्वभावस्यान्यानपेक्षतया क्वचिदपि पारतन्त्र्याऽसम्भवात् । नाप्यसतः, सर्वोपाख्याविरहिततया तस्य क्वचिदाश्रितत्वानुपपत्तेः, न हि शशविषाणादिः क्वचिदप्याश्रितः उपलब्धः । न च व्य
★परिणामवादसमीक्षा ★ सांख्यवादी जो कहता है कि एक ही वस्तु का जो अन्यथा यानी परिवर्तित हो जाना यही परिणाम है - इस के ऊपर दो विकल्प हैं कि वह परिवर्तन एक अंश से होता है या सर्वांश से ? 'एक अंश से परिवर्तन' यह असम्भव है क्योंकि एक वस्तु होना इस का मतलब है निरंश वस्तु होना, जब उस एक वस्तु का कोई अंश ही नहीं है तब 'एक अंश से परिवर्तन' भी कैसे हो सकेगा ? यदि सर्वांश से यानी अपने संपूर्ण अखंडस्वरूप से परिवर्तन मानेंगे तो पूर्वपदार्थ का नाश हो कर नये पदार्थ का उद्भव हो जाने से सर्वथा भेद होगा न कि परिणाम । दोनों विकल्प दोषग्रस्त होने से एक वस्तु के अन्यथाभाव (= परिवर्तन) को परिणाम नहीं बता सकते क्योंकि वह नये पदार्थ के उद्भव के साथ जुड़ा हुआ है ।।
सांख्य : हम स्वभाव के अन्यथाभाव को परिणाम नहीं कहते किन्तु अवस्थित रहने वाले धर्मी के एक धर्म की निवृत्ति होने पर अन्य धर्म का प्रादुर्भाव होना - इसी को हम परिणाम मानते हैं ।
पर्यायवादी : ऐसा मन्तव्य गलत है । कारण, आप को ऐसा मानना पडेगा कि वह निवृत्त होने वाला और प्रादुर्भूत होने वाला धर्म धर्मी से पृथक् तत्त्व होता है, ऐसा अगर नहीं मानेंगे, उन धर्मों को धर्मी से सर्वथा अभिन्न मानेंगे तो धर्मि के तदवस्थ (स्थायि) रहने पर वे धर्म भी स्थायि ही बने रहेंगे, यानी पुराने धर्म का तिरोभाव और नये धर्म का उद्भव ही शक्य नहीं होगा । कैसे यह देखिये - जिस के स्थिर रहते हुए भी जो वहाँ से निवृत्त होता है वह उस से भिन्न होता है । उदा० घट के स्थिर रहते हुए निवृत्त होने वाला वस्त्र घट से भिन्न होता है । इसी तरह यदि धर्मी के स्थिर रहते हुए आविर्भूत-तिरोभूत होने वाला धर्मसमूह निवृत्त होता है तो वह धर्मसमूह उस धर्मि से क्यों भिन्न नहीं होगा ? तात्पर्य, पृथग्भूत अर्थस्वरूप धर्मों का आविर्भाव या तिरोभाव होने पर भी धर्मी तो तदवस्थ ही होता है तो वह कैसे 'परिणत' कहा जाय ? बताईये कि घट से भिन्न कट एवं वस्त्र का क्रमश: उत्पाद-विनाश होने पर भी घट स्थायि रहता है तो कट एवं वस्त्र क्या घट के परिणाम होते हैं ? नहीं । यदि परिणाम हैं ऐसा मानेंगे तो सारी दुनिया एक-दूसरे का परिणाम कही जायेगी । यह अतिरेक हो जायेगा । फलत: चैतन्य को भी परिणामि मानने की आपत्ति होगी ।
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