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________________ द्वितीयः खण्डः-का०-३ ३४७ इत्यादिप्रक्रिया [२९५-७]सिद्धिसौधशिखरमध्यास्त; तस्मानिर्निवन्धन एवायं प्रधानादिभ्यो महदायुत्पत्तिक्रमः । न च नित्यस्य हेतुभावः संगतः यतः प्रधानाद् महदादीनामुत्पत्तिः स्यात् नित्यस्य क्रमयौगपयाभ्यामर्थक्रियाविरोधादिति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । __ अथ नास्माभिरपूर्वस्वभावोत्पत्त्या कार्य-कारणभावोभ्युपगतः यतो रूपाभेदादसौ विरुद्धयते, किंतु प्रधानं महदादिरूपेण परिणतिमुपगच्छति सर्पः कुंडलादिरूपेणेवेति 'प्रधानं महदादिकारणम्' इति व्यपदिश्यते, महदादयस्तु तत्यरिणामरूपत्वात् तत्कार्यव्यपदेशमासादयन्ति । न च परिणामोऽभेदेऽपि विरोधमनुभवति एकवस्त्वधिष्ठानत्वात् तस्येति । असम्यगेतत् परिणामाऽसिद्धेः । तथाहि - असौ पूर्वरूपच्युतेर्भवत् अप्रच्युतेर्वेति कल्पनाद्वयम् । तत्र यदि अप्रच्युतेरिति पक्षः तदाऽवस्थासांकर्याद् वृद्धाद्यवस्थायामपि युवत्वाद्यवस्थोपलब्धिप्रसंगः । अथ प्रच्युति(?ते)रिति पक्षः तदा स्वरूपहानिप्रसक्तिरिति पूर्वकं स्वभावान्तरं निरुद्धम् अपरं च तदुत्पन्नमिति न कस्यचित् परिणामः सिद्धयेत् । ___ अपि च, तस्यैवान्यथाभावः परिणामो भवद्भिर्वर्ण्यते, स चैकदेशेन, सर्वात्मना वा ? न तावत्, एकदेशेन, एकस्यैकदेशाऽसंभवात् । नापि सर्वात्मना, पूर्वपदार्थविनाशेन पदार्थान्तरोत्पादप्रसंगात् । अतो दूसरी बात यह है कि - अन्वयसहचार और व्यतिरेक सहचार के आधार पर कार्य-कारण भाव का निश्चय किया जाता है। प्रधानादि से महत् आदि की उत्पत्ति मानने के लिये कोई अन्वयसहचार या व्यतिरेक सहचार किसी को अनुभवगोचर ही नहीं है जिस से कि प्रधान से महत्, उस से अहंकार..... इत्यादि प्रक्रिया सिद्धिभवन के शिखर पर आरूढ हो सके । निष्कर्ष, प्रधानादि से महत् आदि की उत्पत्ति की प्रक्रिया प्रमाणबाह्य है । यह भी ज्ञातव्य है कि नित्य वस्तु के साथ क्रमश: या एक साथ अर्थक्रियाकारित्व का विरोध होता है, इस लिये नित्यपदार्थ कहीं भी हेतु की भूमिका अदा नहीं कर सकता, अत एव नित्य प्रधान तत्त्व से महत् आदि की उत्पत्ति सम्भव नहीं है, - यह तथ्य अग्रिम ग्रन्थ में प्रगट किया जायेगा। ★ असत्कार्यवादनिषेधपूर्वकपरिणामवाद की आशंका ★ सांख्य : अपूर्व यानी पूर्व में असत् ऐसे कार्यस्वभाव की उत्पत्ति से फलित होने वाले कार्य-कारणभाव का आदर हम नहीं करते जिस से कि स्वरूप-अभेद के साथ विरोध को अवकाश मिल सके । हमारे मत में, प्रधान ही महत् आदि कार्यरूप में परिणत होता है, जैसे - साँप कुंडलावस्था, लम्बावस्था आदि अवस्थाओं में परिणत होता है । इस तरह महत् आदिरूप में परिणत होने वाले परिणामी को ही हम 'कारण' कहते हैं और परिणामरूप होने से महत् आदि उस के 'कार्य' कहे जाते हैं । अभेद होने पर भी परिणाम होने में कोई विरोध नहीं है, जैसे - साँप से अभिन्न ही कुण्डलावस्था उस का परिणाम होती है । परिणाम एक वस्तु में अधिष्ठित होता है, न कि अन्य वस्तु में, इसलिये परिणामि के साथ उस का अभेद भी हो सकता है जिस में कोई विरोध नहीं । पर्यायवादी : यह वक्तव्य सच्चा नहीं क्योंकि 'परिणाम' वास्तव में सिद्ध नहीं है । कैसे यह देखिये - परिणाम होगा तो कब होगा - पूर्व स्वरूप नष्ट होने पर होगा या पूर्वस्वरूप के रहते हुये भी ? ये दो विकल्प प्रश्न हैं। पूर्वस्वरूप के रहते हुये भी यदि नया परिणाम बनेगा तब तो दो अवस्थाओं का सांकर्य दोष होगा, जैसे वृद्धावस्था में भी युवावस्था अनिवृत्त होने से उपलब्ध रहेगी । यदि उत्तर परिणाम उत्पन्न होने पर पूर्वरूप नष्ट हो जायेगा तब तो स्वरूपहानि होने से पूर्ववस्तु ही नष्ट हो गयी । तात्पर्य, पूर्व स्वभाव खतम हो गया, नया ही स्वभाव उत्पन्न हुआ इस का मतलब नयी ही वस्तु उत्पन्न हुई, न कि पूर्ववस्तु का नया परिणाम । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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