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________________ ३५० श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् __यच्च असत्कार्यवादे 'असदकरणात्'.....इत्यादि दूषणमभ्यधायि [२९८-१३] तत् सत्कार्यवादेपि तुल्यम् । तथाहि - असत्यकार्यवादिनापि शक्यमिदमित्थमभिधातुम् - "न सदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत् कार्यम्" इति। अत्र च 'न सत् कार्यम्' इति व्यवहितेन सम्बन्धो विधातव्यः । कस्माद् - सदकरणाद् उ. पादानग्रहणाद्.... इत्यादिहेतुसमूहात् । उभ(य)योर्यश्च दोषस्तमेकः प्रेर्यो न भवति । तथाहि - यदि दुग्धादिषु दध्यादीनि कार्याणि रस-वीर्य-विपाकादिना विभक्तेन रूपेण मध्यावस्थावत् सन्ति तदा तेषां किमपरमुत्पायं रूपमवशिष्यते यत् तैर्जन्यं स्यात् ? न हि विद्यमानमेव कारणायत्तोत्पत्तिकं भवति प्रकृतिचैतन्यरूपवत् । अत्र प्रयोगः - यत् सर्वात्मना कारणे सत् न तत् केनचिज्जन्यम्, यथा प्रकृतिश्चैतन्यं वा, तदेव वा मध्यावस्थायां कार्यम्; सत् तत् सर्वात्मना परमतेन क्षीरादौ दध्यादि - इति व्यापकविरुद्धोपलब्धिप्रसंगः । न च हेतोरनैकान्तिकता, अनुत्पाद्याऽतिशयस्यापि जन्यत्वे सर्वेषां जन्यत्वप्रसक्तिः दो धर्मों में एकत्व अभेद की आपत्ति होगी, क्योंकि तिरोभूत एवं आविर्भूत होनेवाले वे दोनों धर्म एक ही धर्मीस्वरूप से अभिन्न है । तदभिन्न से जो अभिन्न होता है वह तद्रूप होता है यह नियम है, उदा. घट से अभिन्न मिट्टी से अभिन्न द्रव्य हो तब घट और द्रव्य भी अभिन्न होता है। दो धर्मों के अभिन्न होने पर अब यह प्रश्न होगा कि धर्मी कौन से धर्म के रूप में परिणत होगा अथवा कौन सा धर्म परिणाम में ढलेगा ? यह भी ध्यान में लेना होगा कि अवस्थित धर्मी से अभिन्न होने के कारण वे दोनों धर्म भी अवस्थित ही होंगे, तब जैसे धर्मी से अभिन्न अपने धर्मीस्वरूप की न निवृत्ति होती है न प्रादुर्भाव, उसी तरह स्थायी धर्मि से अभिन्न धर्मों का भी नाश-उत्पाद नहीं हो पायेगा। अथवा ऐसा होगा कि धर्मों से अभिन्न धर्मों का स्वरूप जैसे धर्म की तरह उत्पाद-विनाशशालि होता है वैसे ही धर्मों से अभिन्न होने के कारण धर्मी का भी, अपूर्व धर्मीरूप से उत्पाद और पूर्वधर्मी रूप से नाश प्रसक्त होगा । फलत: धर्म या धर्मी किसी का भी परिणाम सिद्ध नहीं हो सकता । निष्कर्ष, सांख्यमत में परिणामवाद को ले कर कार्य-कारण व्यवहार संगत नहीं हो सकता । पहले अभेद का निराकरण करते हुए हमने यह भी कह दिया है कि परिणाम को सिद्ध करने वाला न तो कोई क्षणिक प्रमाण है, न अक्षणिक । ★ असत्कार्यवाद के विरोध में समान कारिका* असदकरणात्..इत्यादि कारिका से असत्यकार्यवाद में पहले जो दोषारोपण किया है वह सब अनुपपत्तिस्वरूप दोषारोपण तो सत्कार्यवाद में समानरूप से प्रसक्त हो सकता है । कैसे यह देखिये - असदकरणाद....इस कारिका में प्रथमाक्षर 'अ' के बदले 'न' का प्रयोग कर के असत्कार्यवादी उसी कारिका को सत्कार्यवाद के निषेध में प्रयुक्त करते हैं । इस कारिका का सारभूत प्रतिज्ञात्मक वाक्यार्थ यह है कि 'कार्य उत्पत्ति के पहले सत् नहीं होता' । क्यों ? इस हेतुप्रश्न के उत्तर में सदकरण, उपादानग्रहण आदि पाँच हेतुओ का निर्देश है जिस में सदकरण के अलावा चार हेतु तो वे ही हैं जो सत्कार्यवादी ने असत् कार्य के निषेध में प्रयुक्त किये हैं। समान हेतुचतुष्टय के प्रयोग का तात्पर्य यह है कि दोनों मत में परस्पर निषेध के लिये जो समान दोषापादन किया जा सके, दोनों में से किसी भी वादी को उस का प्रयोग नहीं करना चाहिये । यह कैसे वह देखिये * 'यबोभयोर्दोषो न तमेकश्चोदयेदिति' तत्त्वसंग्रहे षोडशश्लोक - पञ्चिकायाम् (३१-२२) । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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