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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
तथा वादि-प्रतिवादि - प्राश्निकानामभावे नाद्वैतवादावतारः सम्भवी, तत्सद्भावे वाऽद्वैतविरोधो न्यायानुगत इति न तत्पक्षोऽभ्युपगमार्हः । यच्च 'भेदाः सत्तातो यदि भिन्नाः खरविषाणवदसन्तः प्रसक्ताः, अभिनाश्वेत् सत्तामात्रकमेव न विशेषा नाम । तथाहि - यद् यतोऽव्यतिरिक्तम् तत् तदेव, यथा सत्तास्वरूपम्, अव्यतिरिक्ताश्च ते सत्तातः, तथा सति सत्तामात्रकमेव' इत्यभ्यधायि तद् भेदवादिनोऽपि समानम् । यतस्तेनाप्येतत् शक्यं वक्तुम् - यदि विशेषेभ्यो व्यतिरिक्का सत्ता खरविषाणवदसती प्राप्ता, अव्यतिरिक्ता चेत् विशेषा एव न सा - इति न्यायस्य समानत्वात् । तदेवमभेदे प्रमाणाभावात् भेदस्य वाडबाधितप्रमाणविषयत्वात् - न तदभ्युपगमो ज्यायानिति शुद्धद्रव्यास्तिकमतप्रतिक्षेऽपि पर्यायास्तिकाभिप्रायः । [ सांख्यमतप्रतिक्षेपकः पर्यायास्तिकनयः ]
अशुद्धद्रव्यास्तिकसांख्यमतप्रतिक्षेपकस्तु पर्यायास्तिकः प्राह * यदुक्तं कापिलैः 'प्रधानादेव मह - दादिकार्यविशेषाः प्रवर्त्तन्ते' इति, तत्र यदि महदादयः कार्यविशेषाः प्रधानस्वभावाः एव कथमेषां कार्यतया ततः प्रवृत्तिर्युक्ता ? न हि यद् यतोऽव्यतिरिक्तं तत् तस्य कार्यम् कारणं वेति व्यपदेष्टुं युक्तम्, घटाया जाता है उस) में भेद होने का मानने पर ही अनुमान प्रयोग किया जा सकता है । यदि वह भेद पारमार्थिक है तब अद्वैत की अनुमान से सिद्धि कैसे हो सकेगी ? भेद यदि पारमार्थिक नहीं है तो दृष्टान्तादिभेद न रहने पर पारमार्थिक अद्वैत साधक अनुमान ही कैसे प्रवृत्त होगा ?
उपरांत, हेतु के विना कभी अनुमान नहीं होता । यदि अद्वैतसाधक हेतु अद्वैततत्त्व से भिन्न होगा तब तो अद्वैत का अनुमान ही कैसे होएगा ? भेद तो सत् सत् का ही होता है असत् का कभी भेद नहीं होता जैसे शशसींग आदि का । अद्वैत साधक हेतु को भिन्न मानेंगे तो उस को अतिरिक्त सत् मानना पडेगा, फलतः अद्वैत का भंग होगा । यदि हेतु को अभिन्न मानेंगे तब तो वह भी अद्वैतसाध्य में विलीन हो जाने से साध्यकोटि में आ जायेगा, किन्तु अद्वैत का कोई अतिरिक्त साधक हेतु नहीं रह पायेगा, तब कैसे अद्वैत साध्य सिद्ध होगा ? हेतु जब साध्यकोटि में आ गया तब साध्यविशिष्ट पक्ष जो कि प्रतिज्ञात अर्थ है उसका एकदेश रूप साध्य में विलीन हुआ हेतु असिद्ध कोटि में आ जाने से अनुमानकारक नहीं रह सकता । यदि ऐसा कहें कि अनुमान के लिये हेतु को कल्पना से भिन्न मान लेंगे, तब अनुमान भी प्रवृत्त होगा और अद्वैत भी सिद्ध होगा । तो यह ठीक नहीं है, कल्पनाकल्पित पदार्थ कुछ भी काम करने में असमर्थ होता है ।
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काल्पनिक सर्पदंश एवं रेखांकित गवयादि के असत् होते हुए भी मरणादिकार्यसक्षम होने का जो पहले कहा, था वह युक्तिसंगत नहीं है । सर्पदंशादि वहाँ सर्वथा असत् नहीं होते किन्तु वे मशकदंशादि के कुछ न कुछ रूप में सत् ही होते हैं । पृथ्वी आदि से अतिरिक्त छट्ठे भूत के समान सर्वथा असत् पदार्थ किसी भी कार्य के लिये समर्थ उपलब्ध नहीं होता ।
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अद्वैतवाद इसलिये भी उचित नहीं है - अद्वैत की सिद्धि के लिये वाद में उतरना अनिवार्य है, वाद तभी हो सकता है जब भिन्न भिन्न वादी प्रतिवादी - सभ्य और सभापति की हस्ती हो । यदि इन सभी की भिन्न भिन्न हस्ती मान ली जाय तब तो भेदन्याय के प्रवेश से अद्वैत पक्ष में विरोध उपस्थित हो जायेगा, अतः अभेदपक्ष स्वीकारार्ह नहीं है ।
★ सांख्यमतप्रतिक्षेपोऽयं तत्त्वसंग्रहे कारिका १६ तः ४५ मध्ये दृष्टव्यः ।
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