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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
३४३ यदप्यभ्यधायि 'भेदविषयाणामुपायानां ब्रह्मरूपेण सत्त्वात् कार्यकरणम्' - [२९१.६] एतदप्ययुक्तम्, यतो येन रूपेण सत्त्वं तेन कार्यसामर्थ्यम् यच्च कार्योपयोगं रूपं तेषाम् तदसदेवेति न ब्रह्मरूपेणापि सन्तः उपायाः कार्यकरणक्षमाः, ततः सकलव्यवहारप्रच्युतेरभेदस्य न प्रमाणगम्यता । यदपि 'सर्वमेकं सदविशेषात्' इत्युक्तम् [२६९-५], अ(न्य)त्रापि किमयमध्यक्षव्यापारो निर्दिष्टः आहोस्विदनुमानम् ? यदि प्रथमः पक्षः, स न युक्तः सकलाद्वैतग्राहहकत्वेनाध्यक्षस्य प्रतिषिद्धत्वात् । द्वितीयोप्ययुक्त एव, यतोऽनुमानं दृष्टान्त-दान्तिकभेदे सति प्रवृत्तिमासादयति, स चेत् पारमार्थिकः कुतोऽद्वैतम् ? अपारमार्थिकवेत् कथं ततः पारमार्थिकाद्वैतसिद्धिः ? तथा हेतुरपि तत्साधको यदि भिन्नस्तदापि कथमद्वैतम् असतो भेदानुपपत्तेः शविषाणादिवत् । अभिन्नश्चेत् न ततः साध्यसिद्धिः प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्धत्वेनाऽगमकत्वात् । न च कल्पितभेदादपि ततस्तत्सिद्धिः, कल्पनाविरचितस्य कार्यनिर्वर्त्तनाऽक्षमत्वात् । कल्पिताहिदंश-रेखागवयादीनामपि यत् असत्त्वे मरणादिकार्यकर्तृत्वं प्रतिपादितम् (२९२-५) तदपि न युक्तिक्षमम्, तेषामपि केनचिद् रूपेण पारमार्थिकत्वसंगतेः, अत्यन्तासतस्तु षष्ठभूतस्येव कार्यकारितानुपलब्धेः । काल्पनिक सत् होने के कारण ही वे व्यवहार के अंग होते हैं । तात्पर्य, व्यवहार के अंग होते हुये भी घटादि वास्तव सद्रूपशालि नहीं होते । ___उत्तर : यह मिथ्या वक्तव्य है, क्योंकि संवृत कभी भी किसी स्वभाव से संवेदनारूढ नहीं होती । कैसे यह देखिये, सांवृति कहो, उपचरित कहो या काल्पनिक रूप कहो एक ही बात है । जो कल्पनाकल्पितरूप होता है वह सदैव बाधक प्रतीति के उदय से निवृत्त हो जाता है जैसे रजत की सत्य प्रतीति से काल्पनिक शुक्तित्व । जो सर्वथा कल्पना निर्मित है जैसे रजत में अध्यवसित शुक्ति आदि वे कभी व्यवहार के अंग नहीं होते । तथा पहले जो बताया है कि ककारादिरूप से असत्य रेखा-ककारादि बोधस्वरूप सत्य कार्य के जनक होते हैं। - वह तो स्वरूपत: रेखा-ककारादि के रूप में रेखा ककार आदि को कुछ सत्स्वरूप होने पर ही यानी द्वैतवाद में ही घट सकता है । अभेदवाद में तो सत्य अद्वैत है और सत्यभित्र तो कुछ है ही नहीं, इस स्थिति में मिथ्या रेखा-ककारादि भी नहीं है तो कैसे बोधादि कार्यों की संगति होगी ?
★ ब्रह्मरूप से सत्य उपाय कार्यसाधक नहीं★ पहले जो यह कहा था 'अभेददृष्टि साधक उपाय भेदावलम्बि होने पर भी वास्तव में ब्रह्मस्वरूप होने से सत् ही है अत एव वह साक्षात्कारादि कार्य कर सकता है ।' - यह भी गलत है, क्योंकि पदार्थ जिस रूप से सत् होता है उसी स्वरूप से उसमें कार्यजननसामर्थ्य होता है, आप तो जिस रूप से कार्यसामर्थ्य होने का मानते हो उस रूप को तो आप सत्य ही नहीं मानते, तब ब्रह्मरूपेण उपायों को सत् मानने पर भी वे कार्यजनन के लिये सक्षम नहीं हो पायेंगे । फलत: सर्व व्यवहारों से भ्रष्ट होने वाला अभेद प्रमाणगोचर नहीं हो सकेगा।
★ अद्वैतसाधक अनुमान की समीक्षा ★ 'अविशिष्टरूप से सत् होने के कारण सब कुछ एक रूप है' ऐसा जो कहा था उसके बारे में प्रश्न है कि यह आपने अनुमानप्रयोग कर दिखाया है या प्रत्यक्षव्यापार का उल्लेख किया है ? प्रत्यक्ष व्यापार का विकल्प संगत नहीं है क्योंकि 'सब कुछ अद्वैत है' ऐसा सिद्ध करने वाला प्रत्यक्ष अभी तक सिद्ध नहीं हो पाया है। अनुमानप्रयोगवाला विकल्प भी ठीक नहीं है, क्योंकि दृष्टान्त एवं दार्टन्तिक(=जहाँ दृष्टान्त का सादृश्य
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