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________________ ३४२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ___यच्चाभेदपक्षे दूषणमाशंक्योत्तरमभ्यधायि [२८२-४] 'अद्वैते किल शास्त्राणाम् मुमुक्षुप्रवृत्तीनां च वैयर्थ्यम्' इत्याशंक्य परिहाराभिधानम्, 'अविद्यानिवर्तकत्वात् मुमुक्षुप्रवृत्तेः, तस्याश्चातत्त्वरूपत्वान द्वैतापत्तिः नाप्यनिवर्त्यत्वम्, वस्तुसत्त्वे ह्येतद् द्वयं भवेद्' इति - तदप्यसारम्, यतो यदि अवस्तुसती अविद्या कथमेषा प्रयत्ननिवर्त्तनीया स्यात् ! न ह्यवस्तुसन्तः शशशृंगादयो यत्ननिवर्तनीयत्वमनुभवन्तो दृष्टाः । अथ सत्त्वेऽपि कथं निवृत्तिः ? तदनिवृत्तौ वा कथं मुक्तिः ? न सदेतत्, नहि सतां घटादीनामनिवृत्तिः तथाऽविद्याया अपि भविष्यति । अथ घटादीनामपि न परमार्थसत्त्वम् तेषामतादवस्थ्यात् । असदेतत्, यतोऽतादवस्थ्यत् तेषामनित्यताऽस्तु नाऽसत्त्वम् अन्यथा तेषां व्यवहाराङ्गता न स्यात् । अथ न तेषां परमार्थसत्त्वाद् व्यवहाराङ्गता किंतु संवृत्येति व्यवहारांगत्वेऽपि घटादयोपि न परमार्थसद्रूपभाजः । असदेतत् - संवृतेः स्वभावाऽसंवेदनात् । तथाहि - सांवृतमुपचरितं काल्पनिक रूपमभिधीयते, यच्च कल्पनानिर्मितं रूपं तद् बाधकप्रत्ययेन व्यावर्त्यते इति कथं व्यवहारांगतामझुवीत ? यच्च अपरमार्थसतामपि सत्यकार्यनिवर्तकत्वमुपदर्शितम् [२९१-२] तत् स्वरूपसंगतेद्वैतपक्षे कथञ्चिदुपपत्तिमत् स्यात् । अभेदपक्षे तु सत्यव्यतिरिक्तस्यासत्यस्याभावात् न कथंचित् कार्यसाधकत्वमुपपत्तिमत् । नहीं मानते, क्योंकि भेदनिषेधक आगम को यदि यथाश्रुत अर्थ में प्रमाण मानने का आग्रह रखेंगे तो वह आगम न रह कर आगमाभास ही कहलायेगा, क्योंकि भेदनिषेधक आगम के साथ पूर्वोक्त प्रत्यक्षादि प्रमाणों का सीधा विरोध है । प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों से विरुद्ध अर्थ का निरूपण करने वाले आगम सत्य न हो कर आभासरूप ही होते हैं । दृष्ट और इष्ट के अविरुद्ध अर्थ का उपदेशक आप्तवचन ही आगमप्रमाण हो सकता है। ★ अविद्या की निवृत्ति का असम्भव ★ अभेदवाद में दूषण की आशंका करते हुए जो उत्तर दिया गया था - पहले यह आशंका जतायी कि - 'अद्वैतवाद में कुछ भी साध्य न होने से शास्त्र और मुमुक्षुप्रयत्न निरर्थक हो जायेंगे' - बाद में इस का उत्तर देते हुए कहा गया था - मुमुक्षुप्रयत्न अविद्यानिवर्त्तक होने से निष्फल नहीं, अविद्या तात्त्विक न होने से द्वैतवाद की आपत्ति भी नहीं है । अविद्या की निवृत्ति असाध्य भी नहीं है । तथा वह यदि वास्तव सत् होती तब ब्रह्म से भिन्न है या अभिन्न ये विकल्पयुगल उठा सकते, किन्तु अतात्त्विक होने से उस को स्थान ही नहीं" - इत्यादि सब असार भाषण है । अविद्या यदि वास्तव सत् नहीं है तो प्रयत्न से निवर्त्तनीय स्वभाव भी कैसे उसमें हो सकता है ? अवस्तुभूत शशसींग आदि की निवृत्ति के लिये किसीने कहीं कष्टानुभव किया हो ऐसा सुना या देखा नहीं है । प्रश्न : यदि वह वास्तव सत् है तो कैसे निवृत्त होगी ? वह यदि निवृत्त ही नहीं होगी तो जीवों की मुक्ति भी कैसे होगी ? उत्तर : ऐसा प्रश्न उचित नहीं है, क्या सद्भूत घटादि पदार्थों की निवृत्ति नहीं होती है ? जैसे सत् होने पर भी घटादि की निवृत्ति होती है वैसे ही सत् होते हुये भी अविद्या की निवृत्ति हो सकती है। यदि कहें कि - "निवृत्त होते हैं तदवस्थ नहीं रह पाते हैं, इसी लिये घटादि भी सत् नहीं है' - तो यह भी गलत विधान हैं, तदवस्थ नहीं रह पाते है, तो उन्हें अनित्य या नाशवंत मानने में बुद्धिमत्ता है, न कि असत् मानने में । असत् होने वाले पदार्थ शशसींग आदि की तरह कभी किसी व्यवहार के अंग नहीं बन पाते । आशंका : घटादि पारमार्थिक सत् होने से व्यवहार के अंग होते हैं ऐसा नहीं है, सांवृत सत् यानी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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