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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ___यच्चाभेदपक्षे दूषणमाशंक्योत्तरमभ्यधायि [२८२-४] 'अद्वैते किल शास्त्राणाम् मुमुक्षुप्रवृत्तीनां च वैयर्थ्यम्' इत्याशंक्य परिहाराभिधानम्, 'अविद्यानिवर्तकत्वात् मुमुक्षुप्रवृत्तेः, तस्याश्चातत्त्वरूपत्वान द्वैतापत्तिः नाप्यनिवर्त्यत्वम्, वस्तुसत्त्वे ह्येतद् द्वयं भवेद्' इति - तदप्यसारम्, यतो यदि अवस्तुसती अविद्या कथमेषा प्रयत्ननिवर्त्तनीया स्यात् ! न ह्यवस्तुसन्तः शशशृंगादयो यत्ननिवर्तनीयत्वमनुभवन्तो दृष्टाः । अथ सत्त्वेऽपि कथं निवृत्तिः ? तदनिवृत्तौ वा कथं मुक्तिः ? न सदेतत्, नहि सतां घटादीनामनिवृत्तिः तथाऽविद्याया अपि भविष्यति । अथ घटादीनामपि न परमार्थसत्त्वम् तेषामतादवस्थ्यात् । असदेतत्, यतोऽतादवस्थ्यत् तेषामनित्यताऽस्तु नाऽसत्त्वम् अन्यथा तेषां व्यवहाराङ्गता न स्यात् । अथ न तेषां परमार्थसत्त्वाद् व्यवहाराङ्गता किंतु संवृत्येति व्यवहारांगत्वेऽपि घटादयोपि न परमार्थसद्रूपभाजः । असदेतत् - संवृतेः स्वभावाऽसंवेदनात् । तथाहि - सांवृतमुपचरितं काल्पनिक रूपमभिधीयते, यच्च कल्पनानिर्मितं रूपं तद् बाधकप्रत्ययेन व्यावर्त्यते इति कथं व्यवहारांगतामझुवीत ? यच्च अपरमार्थसतामपि सत्यकार्यनिवर्तकत्वमुपदर्शितम् [२९१-२] तत् स्वरूपसंगतेद्वैतपक्षे कथञ्चिदुपपत्तिमत् स्यात् । अभेदपक्षे तु सत्यव्यतिरिक्तस्यासत्यस्याभावात् न कथंचित् कार्यसाधकत्वमुपपत्तिमत् । नहीं मानते, क्योंकि भेदनिषेधक आगम को यदि यथाश्रुत अर्थ में प्रमाण मानने का आग्रह रखेंगे तो वह आगम न रह कर आगमाभास ही कहलायेगा, क्योंकि भेदनिषेधक आगम के साथ पूर्वोक्त प्रत्यक्षादि प्रमाणों का सीधा विरोध है । प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों से विरुद्ध अर्थ का निरूपण करने वाले आगम सत्य न हो कर आभासरूप ही होते हैं । दृष्ट और इष्ट के अविरुद्ध अर्थ का उपदेशक आप्तवचन ही आगमप्रमाण हो सकता है।
★ अविद्या की निवृत्ति का असम्भव ★ अभेदवाद में दूषण की आशंका करते हुए जो उत्तर दिया गया था - पहले यह आशंका जतायी कि - 'अद्वैतवाद में कुछ भी साध्य न होने से शास्त्र और मुमुक्षुप्रयत्न निरर्थक हो जायेंगे' - बाद में इस का उत्तर देते हुए कहा गया था - मुमुक्षुप्रयत्न अविद्यानिवर्त्तक होने से निष्फल नहीं, अविद्या तात्त्विक न होने से द्वैतवाद की आपत्ति भी नहीं है । अविद्या की निवृत्ति असाध्य भी नहीं है । तथा वह यदि वास्तव सत् होती तब ब्रह्म से भिन्न है या अभिन्न ये विकल्पयुगल उठा सकते, किन्तु अतात्त्विक होने से उस को स्थान ही नहीं" - इत्यादि सब असार भाषण है । अविद्या यदि वास्तव सत् नहीं है तो प्रयत्न से निवर्त्तनीय स्वभाव भी कैसे उसमें हो सकता है ? अवस्तुभूत शशसींग आदि की निवृत्ति के लिये किसीने कहीं कष्टानुभव किया हो ऐसा सुना या देखा नहीं है । प्रश्न : यदि वह वास्तव सत् है तो कैसे निवृत्त होगी ? वह यदि निवृत्त ही नहीं होगी तो जीवों की मुक्ति भी कैसे होगी ? उत्तर : ऐसा प्रश्न उचित नहीं है, क्या सद्भूत घटादि पदार्थों की निवृत्ति नहीं होती है ? जैसे सत् होने पर भी घटादि की निवृत्ति होती है वैसे ही सत् होते हुये भी अविद्या की निवृत्ति हो सकती है। यदि कहें कि - "निवृत्त होते हैं तदवस्थ नहीं रह पाते हैं, इसी लिये घटादि भी सत् नहीं है' - तो यह भी गलत विधान हैं, तदवस्थ नहीं रह पाते है, तो उन्हें अनित्य या नाशवंत मानने में बुद्धिमत्ता है, न कि असत् मानने में । असत् होने वाले पदार्थ शशसींग आदि की तरह कभी किसी व्यवहार के अंग नहीं बन पाते ।
आशंका : घटादि पारमार्थिक सत् होने से व्यवहार के अंग होते हैं ऐसा नहीं है, सांवृत सत् यानी
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