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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
३४१ च पर्यायास्तिकमतानुसारिणो न क्षतिमावहति । यदपि 'ग्रामाऽऽरामादिभेदप्रतिभासोऽविद्याविरचितत्वादपारमार्थिकः [ ] इत्यभिधानम् - तदप्यसम्यक् इतरेतराश्रयप्रसक्तेः । तथाहि - अविद्याविरचितत्वं भेदप्रतिभासस्य अपारमार्थिकस्वरूपसंगत्यधिगतेः, तत्सद्भावाच्च(?वश्व) अविद्यानिर्मितत्वप्रतिपत्ति(? ते)रिति स्फुटमितरेतराश्रयत्वम् । अभेदप्रतिभासेऽपि कुतः पारमार्थिकत्वम् इति च वक्तव्यम् । यदि 'विद्यानिर्मितत्वात्' इत्युच्येत तदाऽत्रापीतरेतराश्रयत्वं तदवस्थमित्यलमतिप्रसंगेन। तन भेदे प्रमाणबाधा । तत्सद्भावप्रतिपादकप्रमाणभावस्तु दर्शितः । अभेदस्तु न प्रमाणावसेय इत्यापि दर्शितम् । अपि च अद्वैते प्रमाण-प्रमेयव्यवहारस्य प्रत्यस्तमयान तदभ्युपगमो ज्यायान्, यतस्तद्वयवहारश्चतुष्टयाक्षेपपूर्वकः । तदुक्तम् - "चतसृषु भेदविद्यासु तत्त्वं परिसमाप्यते यदुत प्रमाता प्रमेयम् प्रमाणम् प्रमितिः" [ ] इति कुतोऽद्वैतस्य प्रमाणाधिगम्यता ? यश्चागमो मन्त्र-ब्राह्मणरूपो भेदनिषेधायोदाहृतः [२७१-४/६] तस्यार्थवादत्वेन प्रतीयमानार्थेऽप्रामाण्यमागमप्रमाणवादिनाऽभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा प्रमाणविरुद्धत्वेन तदाभासत्वप्रसंगात् । होता - इत्यादि जो भेदवाद में अग्रहण प्रसंग दोष दिखाया था, वह सब भेदग्राहक प्रमाणात्मक प्रतीति से बाधित होने के कारण बोलने जैसा ही नहीं है । भेदग्राहक प्रतीतियों का निर्देश अभी कर आये हैं। दूसरी बात यह भी है कि जो भेदवाद में दूषण बताये हैं उस से अगर संवेदनभिन्न वस्तुमात्र के अभाव की सिद्धि अपेक्षित हो तो उस में इष्टापत्ति है । तथा भेदमात्र का विरोध करने के लिये दोषारोपण करते हैं तो परिणाम में सर्वशून्यवाद प्रसक्त होगा, वह भी पर्यायार्थिक नय को इष्टप्राप्तिरूप ही है इस लिये पर्यायार्थिक नयवादी की कोई क्षति नहीं है।
__ यह जो कहा जाता है - ग्राम-उद्यान आदि में होने वाली भेदबुद्धि अविद्यामूलक होने से अपारमार्थिक है - वह ठीक नहीं है क्योंकि अन्योन्याश्रय दोष लगता है । कैसे यह देखिये - भेदबुद्धि में अपारमार्थिकत्व का भान होने पर ही उस के अविद्यामूलकत्व की प्रसिद्धि हो सकती है, लेकिन अपारमार्थिकत्व की प्रसिद्धि में क्या आधार है ? विद्यामूलकत्व का आधार बतायेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त होगा । विद्यामूलकत्व की सिद्धि पारमार्थिकत्व की सिद्धि होने पर होगी और पारमार्थिकत्व की सिद्धि विद्यामूलकत्व सिद्ध होने पर होगी। इस प्रकार अभेदप्रतिभास में भी अन्योन्याश्रय दोष तदवस्थ है, और कितना प्रासंगिक कहा जाय ? ! निष्कर्ष यह है कि भेद में कोई बाधक प्रमाण नहीं है । भेद के सद्भाव के साधक प्रमाणों का निर्देश कई बार हो चुका है । एवं अभेद प्रमाणप्रसिद्ध नहीं है यह भी दिखाया है । उपरांत यह भी कह सकते हैं कि अद्वैतवाद में द्वैतमूलक प्रमाण-प्रमेय विभाग - व्यवहार का भी लोप प्रसक्त होता है इस लिये भी अद्वैतवाद का अंगीकार शोभास्पद नहीं है । प्रमाण-प्रमेय का व्यवहार अद्वैत के आधार पर नहीं किन्तु निम्नोक्तचतुष्टय के आधार पर ही हो सकता है । जैसे कि कहा है - "तत्त्व चार प्रकारों में व्याप्त है, प्रमाता-प्रमेय-प्रमाण और प्रमिति ।" जब किसी भी वाग्व्यवहार के लिये इस चतुष्टय की कम से कम आवश्यकता अनिवार्य है तब एक मात्र अद्वैततत्त्व को कैसे प्रमाणसिद्ध मान लिया जाय ?
पहले जो आगम प्रमाण के रूप में 'इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते' इस ऋग्वेद के मन्त्र का, तथा 'नेह नानास्ति किंचन' इस बृहदारण्यक के ब्राह्मण वाक्य का भेदनिषेध के लिये उल्लेख किया था उस का उत्तर यह है कि यह सब अर्थवाद है, वैदिक परम्परा में आगमप्रमाणवादी लोग अर्थवाद का यथाश्रुत अर्थ में प्रामाण्य
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