________________
३४०
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् तरसंवित्परमाण्वनुप्रवेशे वा एकाणुमात्रः संवित्परमाणुपिण्डः स्यात्, ततश्च पुनरप्यपरसंवित्परमाणोरभावेनाप्रतिभासने भेदावगम एव । तदेवं देश-कालाऽऽकारैर्जगतः परस्परपरिहारेणोपलम्भप्रवृत्तेर्भदाधिगतिर्व्यवस्थिता । न चाभेदवादिनः परस्परपरिहारेण देशादीनामुपलम्भोऽसिद्धः अध्यक्षसिद्धेऽसिद्धतोद्भावनस्य वैयात्यप्रकटनपरत्वात् । भेदवादिनोपि परस्परं तद(न)नुप्रवेशः स्यादित्यभिहित्वाच्च ।।
यदपि 'अथाकारभेदाद् भेदः स च समानासमानसमयभिन्नसंवेदनाऽग्राह्योऽभिन्नसंवेदनानवसेयश्च' ...इत्यादि [२७४-९] दूषणमभ्यधायि, तदपि प्रतीतिबाधितत्वादनुद्घोष्यम्, विज्ञान-शून्यवादाननुकूलतया का विरह कहो या अन्यसंवेदन के साथ भेद का अनुभव कहो, क्या फर्क पडता है ?
★ वर्तमानसंवेदन को पूर्वापर के साथ संसर्ग नहीं ★ पूर्व-अपर संवेदनों के साथ भी स्वयंसंवेदन का भेदानुभव हो सकता है । कैसे यह देखिये - स्वसंवेदन वर्तमान एवं अपरोक्षस्वरूप में अपने संवेदन में स्फुरित होता है, पूर्व या अपरसंवेदन के रूप में वह स्फुरित नहीं होता । अपने से असंनिहित को ग्रहण करना यही पूर्व या अपर संवेदन का ग्रहण है । पूर्वापर संवेदन कभी भी संनिहितसंवेदन के स्वरूप के साक्षात्कारस्वभाव के साथ तादात्म्य का अनुभव नहीं करता । कारण, संनिहित और असंनिहित में विरोध है इसलिये स्वसंवेदन में विरोध के कारण असंनिहित का तादात्म्य नहीं होगा । स्वसंवेदन में जैसे पूर्वापर का तादात्म्य नहीं है वैसे ही पूर्वापर में स्वसंवेदन की तादात्म्यवृत्ति भी नहीं है। इस से यह फलित होता है कि जो स्पष्टप्रतिभास को आत्मसात् किया हुआ है वह सिर्फ वर्तमान ही होता है । जिस को लेशमात्र भी पूर्वापर की संगत नहीं है उस के स्वरूप का पर्यवसान क्षणभेद में ही संगत होता है । इस प्रकार संवेदन का कालभेद निर्बाध सिद्ध होता है ।
तथा, क्षणिक प्रतिभास भी प्रति परमाणु भिन्न भिन्न होता है - यह आकारभेद है अथवा ज्योति मे ज्योति का या ज्वाला में ज्याला का जैसे अनुप्रवेश होता है वैसे एक परमाणुसंवेदन में अन्य परमाणुसंवेदन का अनुप्रवेश भी मान सकते हैं और तब समस्त संवेदनपरमाणुपिण्ड सिर्फ एक संवेदनपरमाणुस्वरूप ठहरेगा । उस स्थिति में अन्य पृथक् संवेदनपरमाणु की हस्ती ही न होने से उस के प्रतिभास का न होना यह भी भेदावभास ही है।
उक्त रीति से देश, काल और आकार को लेकर एक-दूसरे से पृथक् पृथक् एक-दूसरे की उपलब्धि का होना यही भेदावबोध है - यह व्यवस्थित सिद्ध होता है । अभेदवादी यह तो नहीं कह सकता कि - हमारे मत में एक-दूसरे देशादि का पृथक् पृथक् उपलम्भ ही नहीं होता - ऐसा कहना तो प्रत्यक्षसिद्ध पदार्थ के अस्तित्व को ही मिटा देने जैसा है - सिर्फ वक्रता का प्रदर्शन है । पहले ही कह आये हैं कि अभेदवादी यदि एक-दूसरे की पृथक् उपलब्धि का अपलाप करता है तो भेदवादी एक परमाणुसंवेदन में अन्यपरमाणुसंवेदन के अनुप्रवेश का भी निषेध कर सकता है।
★ भेदवाद में प्रयुक्त आक्षेपों का प्रतिकार ★ यह जो पहले कहा था कि [२७५-२७] - आकारभेद से भी भेद घट नहीं सकता, क्योंकि वह स्वसमानकालीन अथवा स्वभिन्नकालीन ऐसे स्वभिन्नसंवेदन से गृहीत नहीं होता तथा स्वत: स्वाभित्रसंवेदन से भी गृहीत नहीं ★ 'माण्वननुप्रवेशे' इति पूर्वमुद्रिते। अत्र तु लिं० आदर्शानुसारेण पाठः ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org