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द्वितीय: खण्ड:-का०-३ निर्भासमवैति, नीलनि सोऽपि - अप्रत्यक्ष(? अपरोक्ष)नीलात्मकत्वात् - तत्रैव परिनिष्ठित इति कथं परस्पररूपानवभासने सुख-नीलसंविदोन भेदावगतिः ? अभेदो हन्यापेक्ष इत्यन्यानवगमेऽवगंतुमशक्यः भेदस्तु सकलान्यपदार्थव्यावृत्तभावस्वरूपः सोऽन्यप्रतिभासरहितस्वरूपप्रतिभाससंवेदनादेवावगतः इति कथं न स्वप्रतिभासेऽपरसंवेदना प्रतिभासनमेव स्वसंविदो भेदवेदनम् ?
पूर्वापरसंवेदनादपि स्वसंवेदनस्य भेदोऽवगम्यत एव । तथाहि - तदपि वर्तमानाऽपरोक्षाकारं स्वसंवेदने प्रतिभाति न पूर्वापररूपतयाऽसंनिहितग्रहणं हि पूर्वापररूपग्रहणम्, न च तत् संनिहितस्वरूपसाक्षात्कारणस्वभावस्वसंवेदनमात्मसात्करोति तयोर्विरोधात् । तदेवं स्वसंवेदनमपि न पूर्वापरभावे वृत्तिमदिति सर्व विशदप्रतिभाससंगतं वर्तमानमेव । यच्च मनागपि न पूर्वापरभावसंस्पर्शि तत् क्षणभेदसंगतिमनुभवतीति सिद्धः संविदोऽपि कालभेदः । तथा, एकक्षणनियतोऽपि प्रतिभासः प्रतिपरमाणुभिन्नः इतरेन होना । यह बात यदि मान्य है तो फलित यह होगा कि स्मृति में अतीत दर्शन का स्फुरण या ग्रहण नहीं होता, फिर अभेदग्रहण की तो बात ही कहाँ ?!
___★ स्मृति में अभेद का स्फुरण क्यों नहीं ? ★ प्रश्न :- स्मृति में पूर्वदर्शन का स्फुरण ही नहीं होता, इस स्थिति में अन्य प्रतिभास का विरह होने से केवल स्मृति ही अपने स्वरूप से स्फुरित होती है । स्मृति का स्वरूप और स्मृति ये दोनों तुल्य योगक्षेम होने से अभिन्न ही होते हैं, जब स्मृति और उस से अभिन्न उस का स्वरूप स्फुरित होता है तो अभेद का स्फुरण नहीं होता यह कैसे कहा जाय ?
उत्तर :- प्रश्न ही गलत है । यहाँ अन्य होते हुये स्वरूप का स्मृति में अनुप्रवेश भासित नहीं होता है, जहाँ अन्य अनुप्रवेशपूर्वक प्रतिभास होता हो वहाँ ही भिन्न है या अभिन्न इस चर्चा को अवकाश होता है। वहाँ प्रमाण से अभेद व्यवस्था की सम्भावना हो सकती है । किन्तु यहाँ तो स्मृति में पूर्वदर्शन का स्फुरण ही नहीं होता, तब उसकी अपेक्षा से अभेद होने का बोध कैसे शक्य है ?! निष्कर्ष, संवेदन में कालत: अभेद होने का अवबोध शक्य नहीं है।
भेद का तो संवेदन होता है । एक ही काल में कभी बाह्यार्थ नीलादि स्पष्ट स्फुरित होता है तो कभी स्वत: प्रकाशमान देह वाला आन्तर सुखादि संवेदन स्फुरित होता है । कैसे बोल सकते हैं कि भेद अनुभवगोचर नहीं होता ? मधुरसंवेदनशरीर और शीतसंवेदनशरीर स्वयं स्फुरित होते हुए एक साथ सभी प्राणियों को अनुभवगोचर होते हैं इसलिये उन भेदों का अपलाप नहीं हो सकता । कारण, सुखादिसंवेदन सिर्फ अपनी सुखादिसंवेदनशीलता में ही निरत होता है, क्योंकि वह संवेदन स्वयं ही सुखादिमय है । इसलिये वह नीलनिर्भाससंवेदि नहीं होता। नील निर्भास भी अप्रत्यक्षनीलात्मक (?अपरोक्षनीलात्मक) होने के कारण अपने में ही निरत रहता है; इन दोनों संवेदनों में एक-दूसरे का उल्लेख भी नहीं होता, इस स्थिति में सुखसंवेदन और नीलसंवेदन में भेदग्रहण कैसे नहीं होगा ? अभेद तो अन्यसापेक्ष होने के कारण अन्य के अज्ञात रहने पर ज्ञात नहीं हो सकता, भेद तो स्वतन्त्र है, जो अन्य समस्त पदार्थों से व्यावृत्तस्वभावात्मक होता है और अन्यप्रतिभास के विरह में स्वमात्र के प्रतिभासात्मक संवेदन से ही प्रसिद्ध हो जाता है । इस स्थिति में, स्वप्रतिभास में अन्यसंवेदन के प्रतिभास
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