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________________ ३३८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् व्यापार प्रतिभाति, न तु तत्र पूर्व दर्शनं स्वरूपेण चकास्ति प्रच्युतस्वरूपत्वात् तस्य । न चोपरतस्वरूपमपि पूर्वदर्शनं स्मृतौ प्रतिभातीति युक्तम् चकासतो रूपस्य स्मृतावपायात् । चकासद्रूपसंभवे च वर्तमानं तद् दर्शनं स्यात् नातीतम् । यत इदमेवातीतस्यातीतत्वं यत् चकासद्रूपविरहः । तथात्वाभ्युपगमे च न ग्रहणमिति कथमभेदावगमः ? अथ यदा स्मृतौ न पूर्वदर्शनावभासः तथा सति प्रतिभासविरहात् स्मृतिरेव स्वरूपेणाऽऽभाति, सा च स्वरूपेणाभिन्नयोगक्षेमत्वादभिनेति कथं नाभेदप्रतिभासः ? असदेतत् - अन्यानुप्रवेशेन प्रतिभासे सति तदपेक्षयाऽभेदव्यवस्थितेः । यदा च स्मृतौ पूर्वदर्शनं नावभाति तदा तदपेया कथं तस्याभेदावगतिः इति न कालभेदोऽपि संविदः प्रत्येतुं शक्यः । भेदस्त्वेकस्मिन्नेव काले बहिर्नीलात्मा प्रतिभासमानवपुः अन्तश्च सुखादिसंवेदनं स्वप्रकाशतनु प्रतिभातीति कथं न प्रतीतिगोचरः ? तथा, मधुरशीतादिसंवेदनमनेकं स्वप्रकाशवपुर्युगपत् सर्वप्राणिनां प्रसिद्धमिति न तद्भेदः पराकर्तुं शक्यः । यतः सुखादिसंवेदनमात्मनि पर्यवसितम्-तदात्मकत्वात्-न नीलदुःखसंवेदन का अनुमान सहज हो जाता है । इस प्रकार से अनुमान के द्वारा परसंवेदन भी सिद्ध हो सकता है। यदि प्रत्यक्ष के विना अनुमान नहीं हो सकता इत्यादि निरर्थक सूक्ष्म समीक्षा में उलझ कर अन्यसंतानगत प्रतीति का अपलाप करने जायेंगे तो अनुमान के विना प्रत्यक्ष नहीं हो सकता... इत्यादि सूक्ष्म समीक्षा से स्वर्दशन का भी अपलाप करने के चक्कर में गिर जायेंगे, फिर ज्ञानद्वैतवाद को जलाञ्जली दे देना होगा । निष्कर्ष, स्वसंवेदन परसंवेदनों में दैशिक अभेद की सिद्धि शक्य नहीं है । *कालिक अभेद की सिद्धि में प्रमाणाभाव * दैशिक अभेद की तरह कालिक अभेद भी प्रमाणसिद्धपद प्राप्त नहीं कर सकता । कैसे यह सुनिये - वर्तमानकालीन संवेदन जब स्फुरित हो रहा है उस समय पूर्वकालीन संवेदन स्फुरित नहीं होता है, इस लिये उस के अभेद का भान भी 'अभिन्न' ऐसा नहीं हो पाता । यदि कहें कि – पूर्वकालीन संवेदन का भान स्मृति में होता है, इस प्रकार स्मृति में उल्लिखित होने वाले और दर्शन में उल्लिखित होने वाले संवेदनों में एकत्व का अवबोध किया जा सकेगा । - तो यह ठीक नहीं है । कारण, स्मृति में जो संवेदन स्फुरित होता है वह 'वर्तमान' नहीं होता, स्मृति का तो सिर्फ पूर्वदर्शन का उल्लेख करने में ही योगदान रहता है । वर्तमान दर्शन जब उस में उल्लिखित ही नहीं होता सिर्फ पूर्वदर्शन को अध्यवसित करती हुई स्मृति लक्षित होती है, वर्तमान सहवेदन तो उस में स्फुरित नहीं होता तो पूर्वसंवेदन के साथ उस की अभिन्नता का प्रदर्शन स्मृति से कैसे हो सकेगा ? दूसरी बात यह है कि स्मृति भी एक ज्ञान है । ज्ञानाद्वैतवाद में तो ज्ञान स्वमात्रप्रकाशक होता है । अतः स्मृति भी अपने तत्त्व का ही प्रकाशन करने में निमग्न रहेगी, अपने तत्त्व को प्रकाशित करने में ही वह कृतकृत्य बन जायेगी, पूर्वदर्शन तो स्मृतिकाल में विनष्टस्वरूप है इस लिये स्मृति में वह अपने मूल स्वरूप से भासित होने वाला ही नहीं। [तब उस का अभेद कैसे लक्षित होगा !] “पूर्वदर्शन का स्वरूप स्मृति काल में विनिष्ट है फिर भी वह स्मृति में स्फुरित होता है", ऐसा मानना उचित नहीं है, क्योंकि स्मृति में दर्शन का स्फुरण अपायग्रस्त है । यदि स्मृति ज्ञान में दर्शन का स्पष्ट स्फुरण होता है तब तो वह स्फुरित होने वाला दर्शन अतीत न रह कर वर्तमानस्वरूप बन जायेगा। अतीत का अतीतत्व यही है कि स्पष्ट स्फुरणात्मक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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