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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ ३३७ प्रतिभासमनवतरन्तः स्वरूपेणाप्यसन्तो नाम । यथा च परसंविदादीनामसत्यत्वे न ततः स्वदर्शनस्य भेदसिद्धिः तथाऽभेदस्यापीत्युक्तम् । परसंवेदने च प्रत्यक्षानवतारेप्यनुमानप्रवृत्तिरुपपनैव, स्वसन्ततौ निश्चितसंवेदनप्रतिबन्धव्यापारव्याहारादेलिंगस्य परसन्ततावुपलम्भात् परसंवेदनप्रसिद्धिरनुमाननिबन्धना युक्तैव । अतिसूक्ष्मेक्षिकया सन्तानान्तरप्रतिपत्त्यभावाभ्युपगमे स्वसंविन्मात्रस्याप्यभावप्रसके: ज्ञानाद्वैतवादस्य दत्त एव जलाञ्जलिः । तदेवं संविदो देशाभेदो नावगंतुं शक्यः । नापि काल(ला)भेदोऽवगमार्हः । तथाहि - यदा संविद् वर्तमाना भाति तदा न पूर्विकाः, तदनवभासे च न तदपेक्षया 'अभिन्ना' इत्यवसातुं शक्या । अथ पूर्वसंवित् स्मरणे प्रतिभातीति प्रकाशमान-स्मर्यमाणयोः संविदोरभेदावगमः । अयुक्तमेतत्, यतः स्मृतावपि संविद् वर्तमाना न प्रथते, पूर्वदर्शनमे(?ए)व स्मृतेर्व्यापारात् । सा हि पूर्वदर्शनमेवाध्यवस्यन्ती प्रतिभातीति कथमप्रतिभासमानं वतमानसंवेदनं (पूर्वसं)विदाऽभिन्नभादयितुं प्रभुः ? अपि च स्मरणमपि स्वतत्त्वमुद्भासयत् तत्रैवोपरतही माना जाता है । दर्शन भी अपने संवेदन में बाह्यार्थ और अन्यव्यक्तिसंवेदनशून्य ही अनुभूत होता है इस लिये उस का उन दोनों से भिन्न रूप में ही व्यवहार करना चाहिये । यदि अनुभव के अनुरूप व्यवहार नहीं मानेंगे तो सभी व्यवहारों के उच्छेद का अतिप्रसंग होगा। ★ बाह्यार्थ और परसंवेदन में असत्यत्वशंका - समाधान ★ आशंका : अपने देह में अपरोक्षरूप से दर्शन स्वयं संविदित होता है, और कुछ भी संविदित नहीं होता, इस लिये स्वदर्शन ही सत्य है, परकीय संवेदनादि अथवा बाह्यार्थ सत्य नहीं है, अत एव उन से जो स्वसंवेदन में भेद दिखाया जाता है वह भी प्रतियोगी असत् होने से असत् है। अनुमान भी परसंवेदन या उस के भेद का अवबोध नहीं कराता, जब प्रत्यक्ष ही उस का नहीं होता तो तदाश्रित अनुमान भी कैसे होगा ? कदाचित् प्रत्यक्ष के विना भी अनुमानप्रवृत्ति हो जाय फिर भी उस से वस्तुसत्ता की सिद्धि होने का सम्भव नहीं है, क्योंकि अनुमान भी विकल्परूप होने से अप्रमाण ही होता है, व्यवहारमात्र के लिये वह प्रमाण कहा जाता है। उत्तर : ऐसी आशंका बोलने जैसी नहीं, स्वदर्शन से परकीयदर्शन का या उस के भेद का संवेदन नहीं होता इसी से यदि परदर्शन असत्य माना जाय तो परदर्शन से स्वदर्शन का भी संवेदन नहीं होता तो उसे भी कैसे सत्य माना जाय ? यदि अपने देह में अपरोक्षरूप से स्वदर्शन स्फुरित होता है इस लिये वह सत्य है - तो ऐसे परकीय दर्शन भी उस के देह में अपरोक्षरूप से स्फुरता है तो वह भी सत्य क्यों नहीं ? अपने विषय को अपने आप प्रतिभासित करने वाले पदार्थ कदाचित अन्य संतानों में एक-या-दसरे रूप में प्रतिभासित न कर पाये तो इतने मात्र से वे स्वरूपत: असत्य नहीं हो जाते । परकीय संवेदन का स्वदर्शन में स्फुरण न होने पर यदि स्वदर्शन में उस के भेद को असिद्ध माना जाय तो वैसे ही उस के अभेद को भी असिद्ध मानना होगा। परसंवेदन का प्रत्यक्ष भले नहीं होता, अनुमान तो उसका हो सकता है। अपने देह में जो संवेदनपरम्परा अनुभूत है उस के साथ यह सम्बन्ध भी अनुभूत है कि सुखसंवेदन होता है तब सुख के उद्गार निकलते हैं, दुःखसंवेदन होता है तब दु:ख के - निराशा के उद्गार सहसा ही निकल जाते हैं । इस सम्बन्ध का निश्चय जिस को रहता है उस को अन्य व्यक्ति के दुःखोद्गारादि का श्रवण होने पर, दुःखोद्गारादिलिंगक अन्यसन्तानगत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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