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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् भासनमेव ततो भेददर्शनम् । तथाहि – यद् यथा प्रतिभाति तत् तथाऽभ्युपगन्तव्यम् यथा नीलं नीलरूपतया प्रतिभासमानं तथैवाभ्युपगमविषयः बहिरर्थनरान्तरसंवेदनविविक्ततया च दर्शनं स्वसंवित्तौ प्रतिभातीति तथैव तव्यवहारविषयः अन्यथा सकलव्यवहारोच्छेदप्रसंगात् ।
न च स्वदर्शनमेवाऽपरोक्षतया स्ववपुषि प्रतिभातीति तदेव सदस्तु परसंविदादयस्तु न निर्भान्ति कथं ताः सत्याः ? कथं वा ततः स्वसंविदो भेदः ? अनुमानेनाऽपि न तासामधिगतिः प्रत्यक्षाऽप्रवृत्तौ तत्रानुमा- नानवतारात् तदवतारेपि न तद् वस्तुसत्तां साधयितुं क्षमम् व्यवहारमात्रेणैव तस्य प्रामाण्यादिति वक्तव्यम् - यतो यदि स्वदर्शनं परदर्शनसंविदादौ न प्रवर्तते परसंवेदनमपि स्वदर्शनादौ न प्रवर्तते, इति कथं स्वदर्शनस्यापि सत्यता ? अथ स्वदर्शनमपरोक्षतया स्ववपुषि प्रतिभातीति सत्यम् - नन्वेवं परदर्शनमपि तथैव प्रतिभातीति कथं न सत्यम् ? न हि स्वविषयं प्रतिभासमाबिभ्राणा भावा अन्यत्रान्यथा हो इस रूप से जो स्मृति की उत्पत्ति होता है उस से यह फलित हो जाता है कि पूर्व और अपर अर्थों में भेद नहीं, अभेद है।
उत्तर : यहाँ प्रश्न है कि यह सामानाधिकरण्य क्या है ? 'दर्शन और स्मृति का अभिन्नरूप से भासित होना' ऐसा कहना युक्त नहीं है क्योंकि दर्शन और स्मृति दोनों ही भिन्न भिन्न प्रतिभासरूप में सर्वविदित है। कैसे यह भी देखिये - दर्शन का अनुभव स्पष्ट प्रतिभासरूप में होता है जब कि स्मृति का अनुभव अस्पष्ट प्रतिभासरूप में होता है । तथा दर्शन वर्तमानार्थविषयक होता है जब कि स्मृति परोक्ष अर्थ का उल्लेख करती है। इतना स्पष्ट भेद होते हुए दर्शन और स्मृति को एक प्रतिभासरूप कैसे मान सकते हैं ? प्रतिभास भिन्न भिन्न होने पर उन के विषयों में भी भेद प्रसिद्ध होगा, जैसे रूपसंवेदन और स्पर्शसंवेदन भिन्न है तो उन के विषय में भी भेद है । जब विषयभेद सिद्ध हुआ तो फलित होता है कि 'तदेवेदम्' इत्यादि प्रतीतियों में वास्तव में कहीं भी एकत्व भासित नहीं होता है इस लिये एकत्व वास्तविक नहीं है । हाँ, कल्पना में अभेदरूप विषय का उल्लेख मान सकते हैं, किन्तु वास्तविकता प्रतिभासभेदप्रयुक्त अभेदनिषेध का समर्थन करती है यह कई बार कह दिया है।
★ ज्ञानाद्वैतवाद का प्रतिषेध★ वस्तुअभेद का जिस न्याय से निषेध हुआ उसी न्याय के अनुसार दर्शन के अभेद का यानी ज्ञानाद्वैतवाद का भी निरसन हो सकता है। कैसे यह देखिये - दर्शन सिर्फ अपना ही प्रकाशन करने के लिये समर्थ है बाह्यार्थ का प्रतिभास उस से व्यावृत्ति ही रहता है, क्योंकि वह अपने आप में ही पर्यवसित = स्वमात्रनिरत होता है । न तो वह बाह्यार्थ का उद्भास करता है न अन्य व्यक्ति का । जब वह बाह्यार्थ या संवेदन का अनुभव ही नहीं करता तो उन के साथ अभिन्नता का वेदन कैसे कर पायेगा ? यदि कहें कि - उन के साथ भेद का भी वेदन नहीं होता, और यही भेदका अवेदन अभेदवेदन है । - तो इससे उल्टा सिद्ध करने के लिये भी समानरूप से यह कह सकते हैं कि बाह्यार्थादि से अभेद का वेदन नहीं होता वही संवेदन का भेदवेदन
वास्तव में स्वसंवेदन में अन्य का अवभास न होना यही भेददर्शन है । कैसे यह देखिये - जो जैसा अनुभूत होता हो वैसा ही उस को मानना चाहिये । उदा० नीलाकारतया अनुभूत होने वाले रूप को नीलरूप
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