________________
द्वितीयः खण्डः - का० - ३
३३५
रूपता यदि चकास्ति तथापि सत्येव 'उपलब्धिः सत्ता' [ ] इति वचनात् । असदेतत् यतः स्मृतिरपि न वर्त्तमानकालपरिगतमवतरति तमनवतरन्ती च न तदभिन्नं पूर्वं रूपमादर्शयितुं समर्थेति न साप्यभेदग्रहदक्षा । तस्मात् पूर्वदृगनुसारिणी स्मृतिरपि वर्त्तमानदृशो भिन्नविषयैव ।
अथ ' तदेवेदम्' इति दर्शनसमानाधिकरणतया स्मृत्युत्पत्तेः पूर्वापराभिन्नार्थता | ननु किमिदं सामानाधिकरण्यम् ? यदि दर्शन - स्मृत्योरभिन्नावभासिता तदयुक्तम्, प्रतिभासभेदात् । तथाहि - दर्शनं स्फुटप्रतिभासं वर्त्तमानार्थविषयतयाऽवभाति, स्मरणमप्यस्पष्टप्रतिभासं बिभ्राणं परोक्षोल्लेखवदाभाति तत् कथमेकः प्रतिभासः ? प्रतिभास (व ? ) भेदाच्च रूपस्पर्शसंविदोरपि विषयभेदः, तत एवैकत्वं न क्वचिदपि भातीति न वस्तुसत् । भवतु वा कल्पनोल्लेखविषयोऽभेदः तथापि प्रतिभासभेदान्नाऽभेदः इत्युक्तम् । अनेनैव न्यायेन दर्शनस्याप्यभेदो निषेद्धव्यः । तथाहि दर्शनमपि निरस्तबहिरर्थप्रतिभासमात्मानमेवोद्योतयितुं समर्थम् तत्रैव पर्यवसितत्वात् न बहिरर्थम्, नापि नरान्तरसंवेदनम्, तदवेदने च न ततोऽभिन्नमात्मानमाख्यातुमलम् । न च ततो भेदावेदनमेवाभेदवेदनम् विपर्ययेऽप्यस्य समानत्वात् । तथाहि भेदावादिनाप्येतच्छक्यते वक्तुम् - अन्यतोऽभेदावेदनमेव भेदवेदनं संवेदनस्य । किंच, स्वसंवेदनेऽन्यानु
-
"तीसरी कल्पना - स्मृति से सम्बद्ध हो कर पूर्वरूपता दर्शन में स्फुरित होती है- ठीक नहीं है, क्योंकि तब तो यही फलित होगा कि स्मृति ही निरंतर देखने वाले को पूर्वरूपता का अवबोध कराती है न कि दर्शन, और यह तो हमें भी मान्य ही है । [तात्पर्य, पूर्वरूपता दर्शन में स्फुरित नहीं होती, स्मृति में जो भासित होता है उसी को 'पूर्व' संज्ञा दे दी गयी है ।] स्पष्ट है कि नये आने वाले को स्मरण नहीं है, उसको 'इसको एक महीना हुआ' ऐसा अध्यवसाय अर्थ के बारे में कभी नहीं होता ।
आशंका :- दर्शन में नहीं सही, स्मृति में भी पूर्वरूपता जब भासित होती है तो वह सद्रूप ही होनी चाहिये न कि असद्रूप, क्योंकि स्मृति भी एक प्रकार से उपलब्धि ही है और आपने ही कहा है कि 'उपलब्धि ही सत्ता है ।'
-
उत्तर :- यह गलत बात है क्योंकि स्मृति भी वर्त्तमानकाल से सम्बद्ध पूर्वरूपता का प्रकाशन नहीं करती, अत एव वह पूर्वरूप को वर्त्तमान रूप से अभिन्न दिखाने के लिये असमर्थ है, इस लिये स्मृति में भी अभेदग्रहणपटुता नहीं हो सकती । निष्कर्ष पूर्वदर्शन का अनुसरण करनेवाली स्मृति का विषय, वर्त्तमानदर्शन के विषय से भिन्न ही है।
-
Jain Educationa International
★ दर्शन और स्मृति का अभेदानुभव अयुक्त★
आशंका : ‘तदेवेदम् = यह वही है' ऐसा अनुभव सभी को होता है, इस अनुभव में दर्शन का विषय इदंता (= यहपन) है और स्मृति का विषय तत्ता (= वहपन) है। उक्त अनुभव में इन दोनों का समानाधिकरण्य भासित होता है । अतः दर्शनविषय के साथ समानाधिकरण्यवाले अपने विषय को भासित करती हुई स्मृति उत्पन्न होती है । अथवा ' तदेवेदम्' इस अनुभव में 'तद्' अंश स्मृतिरूपता का और 'इदम् ' अंश प्रत्यक्षरूपता का उल्लेख करता है, साथ साथ दोनों का सामानाधिकरण्य भी भासित होता है। अतः दोनों का सामानाधिकरण्य *. 'प्रतिभासवभेदाव (भासनदेभेदे च )' इति पूर्वमुद्रिते, अत्र तु लिं० प्रत्यनुसारेण ।
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org