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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अथ तदेव, तत्रापि न प्रमाणमस्ति, पूर्वापरदृशोर संस्पर्शस्तु प्रतिभासभेदात् प्रतिभास्यमपि भिनत्ति । "नापि तृतीया कल्पना, यतः स्मृतिरेव पूर्वरूपतां निरन्तरदर्शिनोऽवभासयति न दृगिति प्राप्तम् तच्चेष्टमेव । तथाहि - यस्य स्मृतिर्नास्ति तदैवागतस्य नासौ मासादिपरिगतमर्थमध्यवस्यति । ननु च स्मृतावपि पू. अवबोध होता है तब वास्तव में वह दृश्यमानरूप का ही अनुभव है, पूर्वरूप का नहीं । ऐसा नहीं कह सकते कि- 'पूर्वरूपता की मूर्ति का अवभास भले न हो, गुप्तरूप से उसकी हस्ती तो होती है'- ऐसा कहेंगे तो शशसींग की हस्ती स्वीकारना होगा, वास्तव में 'यह वही है' इस दर्शन में वर्तमानरूप ही भासित होता है इसलिये सिर्फ दर्शन में भासित होनेवाले वर्तमानरूप को ही 'सत्' मानना युक्ति-अनुसारी है ।
★ पूर्वरूपता स्फुरित होने पर तीन विकल्प ★ ऐसा मत कहना कि- 'पूर्वरूपता भी दर्शन में सुरित होती ही है - क्योंकि वह स्फुरित कैसे होती है- उसी दर्शन में प्रतिबद्ध हो कर स्फुरित होती है या पूर्वदर्शन में अथवा स्मृति में संबद्ध हो कर ? ये तीन संभवित कल्पना हैं । प्रथम में, वह दर्शन मिथ्या होने की आपत्ति है, क्योंकि पूर्वरूपता संनिहित न होने पर भी वह उस दर्शन में सम्बद्ध हो कर भासित होती है । यदि कहें कि पूर्वरूपता संनिहित ही है तब तो संनिहित रह कर स्फुरित होनेवाली वह अतीतमय न हो कर वर्तमानमय ही भासित होगी, फलत: पूर्व-अपर का भेद ज्ञात नहीं हो सकेगा । जिसको आप प्रत्यभिज्ञा कहते हो जिस को स्मरण- और अध्यक्ष का मिलितरूप मानते हो, वैसा दर्शन यदि पदार्थ की वर्तमानरूपता और पूर्वरूपता को ग्रहण करता है तो ऐसा होने पर संनिहित वर्तमानरूपता और असंनिहित पूर्वरूपता को भासित करनेवाला संवेदन एक नहीं किन्तु दो है जो कि परस्पर विरोधि रूप को ग्रहण करते हैं । कैसे यह देखिये- वर्तमानता को साक्षात् करने वाला संवेदनरूप पूर्वरूपताग्राहकरूप से अनुभव गोचर नहीं होता, एवं पूर्वरूपतासंवेदिरूप वर्तमानतासाक्षात्कारक के रूप में अनुभवगोचर नहीं होता- इस प्रकार संवेदन का द्वैविध्य यानी भेद नहीं क्यों होगा ? यदि नहीं होगा तो फिर विश्व में कहीं भी भेद को बैठने का न्यायोचित स्थान ही नहीं मिलेगा, क्योंकि विरोधिधर्मद्वयसमावेश के बावजुद भी आपको भेद इष्ट नहीं है ।
★ द्वितीय-तृतीय विकल्पों की समीक्षा* पूर्व दर्शन से सम्बद्ध हो कर पूर्वरूपता उत्तर दर्शन में स्फुरित होती है वह द्वितीय कल्पना भी युक्तिसंगत नहीं है। कारण, पूर्वदर्शन ही वर्तमान में असत् है, असत् होने पर वह पूर्वरूपता का प्रकाशक कैसे हो सकेगा ? यदि कहें कि पूर्वक्षण में उसने पूर्वरूपता को गृहीत कर लिया है तो प्रश्न है कि कैसे गृहीत किया हैपूर्वक्षण में उसका वर्तमानरूप गृहीत किया था या अन्य कोई रूप ? यदि अन्य किसी रूप को गृहीत किया था तब तो वर्तमान रूप के साथ उसकी एकता की बात ही कहाँ रही ? आप तो पूर्वरूप और वर्तमानरूप को एक सिद्ध करना चाहते हैं, यदि पूर्वकालीन दर्शन ने वर्तमानभिन्न रूप को गृहीत किया था तो उसका वर्तमानरूप के साथ ऐक्य स्वत: प्रहत हो जाता है- यह तात्पर्य है । यदि कहें कि वर्तमानरूप को ही गृहीत किया था- तो उस विधान में कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि सूत्र में न पिरोये गये मणियों की तरह पूर्व-अपर दर्शनों में कोई सम्बन्ध ही नहीं होता । सम्बन्ध न होने के कारण ही पूर्व-अपर दर्शन के प्रतिभास में भेद सूचित होता है और वही प्रतिभास-भेद अपने विषयों में भी भेद सूचित कर देता है । * 'शोरसंस्पर्शोनसंस्पर्शस्तु' इति पाठ: लिंबडीआदर्श । 'शोरसंस्पर्शाद असंस्पर्शस्तु' इति अत्रोचितपाठ: भाति- तदनुसारेण व्याख्यातमत्र ।
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