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________________ ३३३ द्वितीय: खण्ड:-का०-३ इत्यभेदप्रतिपत्तिर्भविष्यति, ननु यदि नाम तदेव दर्शनम् तथापि तत् प्रतिभातं पूर्वम् अधुना न प्रतिभाति । तथाहि- दृश्यमानाद् रूपात् ताद्रूप्यं भिन्नमाभाति अभिन्नं वा इति कल्पनाद्वयम् । यदि भिन्नं तदा न तद्रूपाभेदः । अथाभिन्नं भाति तदापि दृश्यमानतया वा पूर्वरूपम् पूर्वरूपतया वा दृश्यमानं भातीति वक्तव्यम् । तत्र यदि पूर्वरूपतया दृश्यमानं प्रतिभाति तथा सति पूर्वरूपानुभव एव, न वर्तमानरूपाधिगतिरिति सर्वाऽध्यक्षमतिः स्मृतिरूपतामासादयेत् । अथ दृश्यमानतया पूर्वरूपाधिगतिः तत्रापि स्फुटमनुभूयमानमेव रूपम् न पूर्वरूपता, नहि सा तिरोहिताऽप्रतिभासमानमूर्तिरस्तीति शक्यं वक्तुम्, यदेव हि तत्र दृशि प्रतिभाति वर्तमानं रूपं तदेव सद् युक्तम् ।। न च पूर्वरूपतापि तत्र भात्येवेति वक्तव्यम्, यतः सा किं तस्यामेव दृशि प्रतिबद्धा प्रतिभाति यद्वा पूर्वस्याम् अथ स्मृतौ- इति कल्पनात्रयम् । तत्राद्यकल्पनायां पूर्वरूपतामसनिहितामधिगच्छन्ती दृग् अनृता भवेत् । अथ पूर्वकालता संनिहितैव- नन्वेवं सति सापि संनिहिता तत्र प्रकाशमाना वर्तमानैव भवेत् नातीता, तथा च न पूर्वापरभेदः । यदि तत् स्मरणाध्यक्षरूपं दर्शनं वर्तमानरूपतां पूर्वरूपतां च पदार्थस्य प्रत्येति तथा सति संनिहिताऽसंनिहितस्वरूपग्राहि संविवयं परस्परभिन्नं भवेत् । तथाहिवर्त्तमानतासाक्षात्कारि संवित्स्वरूपं न पूर्वरूपग्राहिस्वरूपतया भाति, नापि पूर्वरूपतावेदकं साम्प्रतिकरूपसाक्षात्कारिरूपतया चकास्ति, कथं न भेदः संवेदनस्य ? अन्यथा सर्वत्र भेदोपरतिप्रसक्तिः । नापि द्वितीयकल्पना, यतः तत्रापि पूर्वदृगधुना नास्तीति कथमसती सा ग्राहिका भवेत् ? अथ पूर्वं तया गृहीतमित्युच्यते तत्रापि किं वर्तमानं रूपं तया गृहीतम् उतान्यत् ? यद्यन्यत् कथमेकता ? स्फुरण स्वीकार किया जाय तो ऐसा होगा कि वस्तु को पहलीबार देखने को आये हुए व्यक्ति को भी उसकी पूर्वरूपता का पता चल जायेगा । यदि ऐसा कहें कि- नये व्यक्ति को पहले उसका दर्शन नहीं हुआ था, पूर्वरूपता के ग्रहण के लिये उस के पास पूर्वदर्शनरूप सामग्री न होने से उसका ग्रहण नहीं हो सकेगा ।- तो यह ठीक नहीं, क्योकि निरन्तरदर्शनवाद में पूर्वक्षण में दर्शन तो वही था इसलिये (उसको तो पूर्वदर्शन में गिन नहीं सकते और) अन्य किसी पूर्वदर्शन के संनिधान का अभाव तो सभी के लिये समान है, अत: पूर्वदर्शन का संनिधान कैसे अभेदग्रहण में सहकारी होगा ? यदि कहें कि- नये देखने वाले को निरन्तरदर्शन न होने से अभेदबोध नहीं होगा किन्तु निरन्तदर्शनवाले को 'यह वही दर्शन है' ऐसा अभेदबोध हो सकता है । तो इस पर सोचना चाहिये कि दर्शन भले एक माना जाय फिर भी जो पूर्व में स्फुरित हुआ है वही वर्तमान में स्फुरित नहीं होता। कैसे यह देखिये- 'यह वही दर्शन है' इस में 'यह' शब्द वर्तमान-दृश्यमान रूप सूचित करता है और 'वही' शब्द तद्रूपता (पूर्वरूपता) को सूचित करनेवाला है- अब यहाँ दो विकल्प प्रश्न होंगे कि 'तद्रूपता' दृश्यमान-वर्तमानरूप से 'यह वही दर्शन है ' इस प्रतीति में भिन्न भासित होती है या अभिन्न ? यदि भिन्न भासित होती है तब तो तद्रूपता के अभेद को स्थान ही नहीं है । यदि अभिन्न भासती है तो दो में से कौन से प्रकार से अभिन्न भासती है - 'दृश्यमानरूप से पूर्वरूप भासित होता है या पूर्वरूपतया दृश्यमान रूप भासित होता है ? यदि दृश्यमानरूप पूर्वरूपतया भासित होता हो तब वास्तव में वह दृश्यमानरूप नहीं है किन्तु पूर्वरूपानुभवरूप ही है, मतलब कोई भी प्रत्यक्षबुद्धि पूर्वरूपवेदक होने के कारण स्मृतिमय ही बनी रहेगी । यदि पूर्वरूप का दृश्यमानरूपतया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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