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________________ ३३२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् पत्तिरस्तु । न च 'प्रतिभासमानाऽव्यतिरिक्तं भाविरूपमाभाति, धर्मादिकं तु तद्व्यतिरिक्तमिति न तद्हःयतोत्रापि यदि भाविरूपं वर्तमानतया प्रतिभाति तथा सति वर्तमानमेव तद् इति कथं कालान्तरस्थायिता ? अथ वर्तमानं भाविरूपतया गृह्यते - नन्वेवं भाविरूपमेव तद् भवति न च वर्तमानं किंचिनाम, तथा चाऽवर्तमानमपि भाविरूपं वर्तमानतया प्रत्यक्ष प्रतिभातीति सर्व दर्शनं विपरीतख्यातिर्भवेत्, ततो विशदतया यत् प्रतिभासते वस्तु सर्व तद् वर्तमानमेवेति कथं स्थायितालक्षणः पौर्वापर्याभेदः ? अथ क्रमेण कालान्तरस्थायि दर्शनं स्थायितां प्रत्येष्यति - नन्वेवमपि वर्त्तमानताप्रकाशकाले कालान्तरस्थितिर्न प्रतिभाति, तदवभासकाले तु न पूर्वकालताप्रतिपत्तिरिति परस्पराऽस्पर्शिनी दर्शनमवतरन्ती क्षणपरम्परैव स्यात् । यदि पूर्वरूपता सम्प्रति दर्शने प्रतिभाति तथा सति प्रथममागतस्तामवगच्छेत् । न च 'तत्र पूर्वदर्शनं नोदितमिति सामग्रभावान तद्रहणम्', यतः पूर्वदर्शनाऽसनिधिस्तदा निरन्तरदर्शनेपि समान इति कथमभेदग्रहणं प्रति सहकारी ? अथ निरन्तरदर्शिनः 'तदेव दर्शनम्' सकता क्योंकि वह संनिहित नहीं है, यदि वह उस काल में किसी तरह संनिहित नहीं है तो वह अब वर्तमानरूप बन जाता है, भाविरूपता उसमें नहीं घटेगी । स्पष्टता- यदि वह भावि रूप दर्शनकाल में अपने स्वरूप से स्फुरित होता है तब वह वर्त्तमानता को ही प्राप्त कर लेगा, फलत: वह भाविरूप न रह कर वर्तमानरूप हो जायेगा । यदि भाविरूप ही रहेगा तो वह उस वक्त संनिहित न रहने से स्फुरित नहीं हो सकेगा क्योंकि वर्तमान में भाविरूप असत् है, वह कैसे स्फुरित होगा ? यदि ऐसा माने कि भाविरूप अरांनिहित होने पर भी स्फुरित हो सकता है तब तो समस्त असंनिहित भाविपरम्परा भी वर्तमान में स्फुरने लगेगी और विवादास्पद भविष्यत्कालीन धर्मादि सर्व पदार्थ भी स्फुरने लगेगा, फिर कोई विवाद ही कैसे रहेगा ? यदि कहें कि जो भाविरूप वर्त्तमानरूप के साथ अभेद धारण करता है वही स्फुरित होता है, धर्मादि तो वर्तमानरूप से अभेद नहीं रखते इसलिये धर्मादि का स्फुरण वर्तमान में नहीं हो सकता । तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ भी पुरानी बात पुन: आवर्तित होगी- यदि भाविरूप वर्त्तमानरूप से स्फुरित होता है तब तो वह वर्तमान ही है, कालान्तर स्थायि नहीं है। यदि वर्तमानरूप भाविरूप से स्फुरित होता है तब वह भाविरूप ही है वर्तमानस्वरूप कुछ है नहीं । इसका फलितार्थ यह निकलेगा कि जो अवर्त्तमानस्वरूप भाविरूप है वही दर्शन में वर्तमानरूप में स्फुरित होता है इसलिये सभी प्रत्यक्ष अन्यथाख्याति यानी भ्रान्तस्वरूप ही है। यदि इस विपदा से पार उतरना है तो मानना होगा कि दर्शन में जो कुछ भी वस्तु स्पष्टरूप से लक्षित होती है वह वर्तमानमात्र ही होती है न कि कालान्तरस्थायि । अब स्थायिस्वरूप पूर्व-अपर के अभेद को कहाँ अवकाश रहेगा ? ★क्रमशः स्थायिता का उपलम्भ अशक्य★ पहले जो दो विकल्प प्रश्न थे- [३३०-२२] स्थिर दर्शन एक साथ अनेककालता का अवबोध कर लेगा या क्रमश: ? उसमें पहले विकल्प की चर्चा के बाद अब दूसरे विकल्प पर विचार चलता है ___ 'कालान्तरस्थायि दर्शन स्थायित्व का अवबोध क्रमश: करेगा' - इस बात पर यह विचार है कि ऐसा मानने पर भी निश्चित है कि वर्तमानता के अवबोध काल में कालान्तर स्थिति का अवबोध होने वाला नहीं, और जब कालान्तर स्थिति के अवबोध का काल आयेगा तब पूर्वकालता का अवबोध नहीं होगा, फलत: एक-दूसरे क्षणों से असंबद्ध ऐसी क्षण-परम्परा ही दर्शन की अतिथि बनेगी । यदि वर्तमानकालीन दर्शन में पूर्वरूपता का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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