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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
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अथ यदा दर्शनं विरमति न तदा तद्रूपं प्रतिभाति किन्तु यदा तदुदितं विद्यते तदा भाविरूपपरिच्छेदः । तदप्यसद् - यतस्तथापि तत्कालतैव तेन परिगृह्यते न भाविरूपम् असंनिहितत्वात्, संनिधाने वा भाविरूपतानुपपत्तेः । यदि हि तद् दर्शनकाले प्रतिभासमानमस्ति स्वरूपेण तथा सति वर्तमानतैवेति तदपि प्रत्युत्पन्नम् न भाविरूपम् भावित्वे वा तदाऽसंनिधेः कथमसत् प्रतिभाति ? यदि त्वसनिहितमपि तद् भाति तथा सति सकलभाविभावरूपपरम्परा प्रतिभासताम् इति धर्मादेरपि सर्वस्य भविष्यद्रूपस्य प्रति
यदि ऐसा कहें कि - एक क्षणस्थिति जैसा कुछ भी भासित नहीं होता सिर्फ सर्वदा स्थिति ही स्थिति भासित होती है । अत: अभेद अक्षुण्ण रहेगा । - तो यहाँ प्रश्न होगा कि यदि दृष्टा को एकक्षणस्थिति का भी पता नहीं लगता तो बहुक्षणिस्थिति का एक साथ पता कैसे चलेगा ? इस से तो अच्छा है यही माना जाय कि क्षणिक दर्शन में सिर्फ क्षणस्थिति का ही अवबोध होता है इस लिये क्षणस्थिति ही वास्तविक है न कि कालान्तरस्थिति ।
*दर्शन में कालान्तरस्थायित्व का निरसन★ आशंका : दर्शन भी हमारे मत में क्षणिक नहीं है इसलिये दर्शन के भेद से उस के ग्राह्य विषयों में भेदप्रसक्ति को यहाँ अवकाश ही नहीं है । दर्शन भी कालान्तरस्थायि ही होता है, इस लिये उस से कालान्तरस्थायि अर्थ का अवबोध होने में कोई विरोध नहीं ।
उत्तर : यह विधान गलत है । कारण, यहाँ दो विकल्प प्रश्न हैं कि स्थिर यानी अनेकक्षणस्थायि दर्शन वस्तु की अनेककालता का भान एकसाथ ही कर लेता है या क्रमश: ? प्रथम विकल्प- एकसाथ अनेककालता का अवभास बुद्धिगम्य नहीं है। कैसे यह देखिये- दर्शन जब घडीयुगल (= ४८मिनीट) के प्रारम्भ काल में व्याप्त अर्थ का अनुभव ले रहा है उस वक्त उस अवभासन का सम्बन्धि यानी आरम्भक्षण का उत्तरकालीन सम्बन्धि अर्थ का अनुभव नहीं होता । यदि उसका भी उस क्षण में अनुभव हो जायेगा तो वह भी वर्तमानताप्राप्त हो जायेगा, कालान्तरस्वरूप नहीं रह पायेगा । अब यहाँ प्रश्न है कि यदि प्रथम क्षण का दर्शन कालान्तर को स्पर्श न करता हुआ सिर्फ कालान्तरभाविस्वरूप का ही अनुभव अपने काल में कर लेता है तो उस दर्शन के क्षय होने के पश्चात् क्षणमें 'अब भी पदार्थ स्थितिधारी ही है। ऐसा अवबोध क्यों नहीं होता ? यदि उस क्षण में दर्शनात्मक ग्रहण नष्ट हो जाने से वैसा अवबोध न होने का कहा जाय तो वह उचित नहीं है, क्योंकि भावि अर्थग्रहण उदित हो चुका है वह अब नहीं क्यों है ? क्यों वह विद्यमान नहीं ? यदि कहें कि- वह जरूर उदित हुआ था लेकिन बाद में उस का अस्त हो गया इसलिये भाविरूपता का अवबोध नहीं होतायहाँ प्रश्न है कि जब बाद में अस्त हो जाने पर भाविरूप का ग्राहक ही कोई रहा नहीं तब पूर्वगृहीत पदार्थ में उत्तरकालीनत्व का ग्रहण कैसे गृहीत होगा ? नियम है कि समानकालीन अर्थ को समकालीन ही दर्शन ग्रहण करता है।
★ वर्तमान दर्शन में भाविरूप का अवबोध अशक्य * यदि ऐसा कहें कि- दर्शन जब विरत हो जाता है तब भाविरूप का अवबोध नहीं करता किंतु जब वह उदित रहता है तब उसका अवबोध करता है । तो यह भी गलत है क्योंकि जिस काल में वह उदित रहता है तत्कालता को ही वह उस अर्थ में गृहीत करता है, भाविरूप का ग्रहण वह उस काल में नहीं कर
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