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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
कार्य-कारणयोर्मिनलक्षणत्वाद् अन्यथा हि 'इदं कारणम् कार्य च' इत्यसंकीर्णव्यवस्थोत्सीदेत् । ततश्च यदुक्तं प्रकृतिकारणिकैः - "मूलप्रकृतेः कारणत्वमेव, भूतेन्द्रियलक्षणस्य षोडशकगणस्य कार्यत्वमेव, महदहंकारतन्मात्राणां च पूर्वोत्तरापेक्षया कार्यत्व-कारणत्वे च" [माठरवृत्ति इति तत् संगतं न स्यात् । आह चेश्वरकृष्णः -
मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृति-विकृतयः सप्त ।
षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥ [सांख्यकारिका० ३] इति । यह जो कहा जाता है - "यदि भेदवर्ग सत्ता से भिन्न होगा तो शशसींग की तरह असत् कोटि में पहुँच जायेगा । यदि सत्ता से अभिन्न है तब तो 'सत्ता' मात्र ही शेष रहा न कि विशेष । कैसे यह देखिये - जो जिस से अपृथक् होता है वह तद्रूप ही होता है जैसे सत्ता का स्वरूप । भेदवादी के अभिमत विशेष भी सत्ता से अपृथक् ही हैं, ऐसा होने पर निरूपण भेदवादी के लिये भी समानरूप से उपयोगी है । भेदवादी भी ऐसा कह सकता है - सत्ता यदि विशेषों से पृथक् मानेंगे तो विशेषों से पृथक् खरसींग की तरह असत् कोटि में आ जायेगी । यदि अपृथक् मानेंगे तो विशेष ही शेष रहे न कि सत्ता । युक्ति तो दोनों पक्ष में समान है।
___ निष्कर्ष, अभेद में कोई प्रमाण नहीं है, भेद अबाधितप्रमाण का गोचर है। अत: अभेद का स्वीकार शोभाप्रद नहीं है । शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का विरोधी यह पर्यायास्तिक नय का अभिप्राय है।
★सांख्यदर्शनसमीक्षाप्रारम्भ★ पहले अशुद्ध द्रव्यास्तिकनय के आधार पर सांख्यवादी ने अपना मत पेश किया था - पर्यायास्तिकनयवादी अब उस का प्रतिकार करते हुए कहता है -
सांख्यमतप्रणेता कपिल ऋषि के अनुयायिओंने कहा है कि महत् आदि कार्यवर्ग प्रधानतत्त्व से प्रगट हुआ है । इस पर सोचना है कि महत् आदि विशेष कार्य जब प्रधान से तादात्म्यस्वभाववाले हैं तो प्रधानतत्त्व से उन का कार्य रूप से प्रगटीकरण कैसे संगत होगा ? एक पदार्थ जब किसी अन्य पदार्थ से अनतिरिक्त = अपृथक् = अभिन्नस्वभाव ही होता है तब उन में से न तो किसी के लिये 'कारण' शब्दव्यवहार होता है, न 'कार्य' ऐसा । हेतु यह है कि कारण और कार्य स्वभाव से भिन्न होते हैं, एक जनक स्वभाव है तब दूसरा जन्य स्वभाव है। स्वभावभेद न होने पर भी यदि कारण-कार्यभाव होने का आग्रह रखा जाय तो हर किसी चीज की 'कारण' या 'कार्य' संज्ञा इच्छानुसार चल पड़ने पर प्रधान 'कारण' है, पंचभूत आदि 'कार्य' ही है ऐसा असंकीर्णव्यवहार उच्छिन्न हो जायेगा । उस के फल स्वरूप प्रकृतिमूलकारणवादी सांख्यो का यह विधान"मूलप्रकृति सिर्फ 'कारणमात्र' होती है, पंचभूत + ११ इन्द्रियाँ यह षोडशक वर्ग सिर्फ 'कार्य' रूप है, तथा महत् + अहंकार + पाँच तन्मात्राएँ ये ७ तत्त्व मूलप्रकृति आदि पूर्व-पूर्व तत्त्व की अपेक्षा कार्यरूप भी है और अहंकारादि उत्तरोत्तर तत्त्वों की अपेक्षा 'कारण मय भी हैं।" - विधान असंगत हो जायेगा।
अत: सांख्यकारिका में ईश्वरकृष्णने जो विधान किया है - "मूल प्रकृति = प्रधानतत्त्व सिर्फ प्रकृतिरूप (= उपादानकारणरूप) ही है वह किसी की विकृति (= कार्यरूप) नहीं है। महत् आदि सात प्रकृति-विकृति उभयरूप है, षोडशकवर्ग सिर्फ विकृति है । पुरुष तो न किसी की प्रकृति है न विकृति ।' - यह भी असंगत हो जायेगा । कारण, जब प्रधान और महत् आदि में भेद नहीं है तब या तो सब कारण होंगे या कार्य होंगे। अथवा कार्य-कारण भाव अन्यसापेक्ष मानने पर, पुरुष के लिये जैसे कोई अन्य सापेक्ष अपेक्षणीय नहीं है वैसे
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