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________________ ३२६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् गमे नरान्तरदर्शनमवतरतीति नात्र किंचित् प्रमाणमस्ति । तथाहि - न प्रत्यक्षं परदृग्गोचरमर्थवगमयितुमलम् परदृशोऽनवगमात्, तदनवगमे च तत्प्रतिभासितत्वस्याप्यनवगतेः । न च तद्विषयव्यवहारदर्शनात् परोऽपि 'इदमर्थजातं पश्यति' इत्यनुमानात् परदृष्टतां स्वदर्शनविषयस्य प्रतिपद्यते जनः अनुमानेनाभेदाप्रतिपत्तेः । तद्धि सदृशव्यवहारदर्शनादुदयमासादयत् स्वदृष्टतुल्यतां परदृग्विषयस्यावगन्तुमीशं न पुनरभेदम्, यथा धूमान्तरदर्शनादुद्भवन्त्यनुमितिः पूर्वदहनसदृशं दहनान्तरमध्यवस्यति न पुनस्तमेव दहनविशेषम् सामान्येनान्वयपरिच्छेदात् ।। यदि पुनः सदृशव्यवहारदर्शनात् स्वपरदृष्टस्याभेदावगमः तदा रोमाञ्चलक्षणतुल्यकार्यदर्शनात् स्वपरसुखाभेदानुमितिप्रसक्तिः । अथ पुलकोद्मादौ तुल्येऽपि सन्तानभेदाद् भेदः, तथा सति सुखमपि स्वरूपदेखना बंद हो जाने पर भी वही वस्तु दूसरे के दर्शन की अतिथि होती है' यह सिद्ध हो सके । कैसे यह देखिये - अन्य को दृष्टिगोचर होने वाला अर्थ - 'यह अर्थ अन्य को भी दृष्टिगोचर बन रहा है' इस रूप में प्रत्यक्ष से ज्ञात नहीं हो सकता क्योंकि अन्य की दृष्टि अपने लिये इन्द्रियातीत है । उस का अवबोध न होने पर 'वह उस में प्रतिभासित है' ऐसा भी बोध कैसे हो सकता है ? यदि ऐसा अनुमान लगाया जाय कि 'दसरा आदमी भी इसी अर्थवर्ग को देखता है क्योकि उसी अर्थ को पाने के लिये उस की भी प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। इस प्रकार के अनुमान से स्वदर्शन के विषय मे परदृष्टता का अवबोध लोग कर सकते हैं - तो यह भी शक्य नहीं है क्योंकि अनुमान से कभी अभेद का अवबोध शक्य नहीं है । कारण, दृष्टा यदि देखता है कि यह भी मेरे तुल्य ही व्यवहार कर रहा है तो उस से इतना ही अनुमान किया जा सकता है कि उस की दृष्टि का विषय मेरी देखी हुयी वस्तु से मिलता-जुलता है, किन्तु अभेद का अनुमान कैसे होगा ? जैसे देखिये, पहले अग्नि और धूम का दर्शन हुआ । बाद में कभी कहीं अन्य धूम देखा तो उस से इतना ही अनुमान हो सकता है कि पूर्वदृष्ट अग्नि से तुल्य यहाँ भी अग्नि है । किन्तु वही अग्नि यहाँ भी है ऐसा अभेदग्राहि अनुमान शक्य नहीं है। इस का कारण यह है - अग्नि के साथ धूम का व्याप्यत्व सम्बन्ध सिर्फ सामान्य तौर पर गृहित हुआ है, विशेष तौर पर नहीं, यानी पूर्वदृष्ट अग्नि के साथ वर्तमान दृष्ट धूम का व्याप्यत्व सम्बन्ध गृहीत नहीं हुआ, इसी तरह प्रस्तुत में भी समझ लेना। ★ सदृशव्यवहार से अभेदानुमिति अशक्य* आप को यदि दो व्यक्ति के समानव्यवहार को देखकर दोनों ने देखे हुए पदार्थ की अभेदसिद्धि मान्य है तब तो स्व और पर में रोंगटे खडे हो जाने का तुल्य कार्य देखने पर स्व में और अन्य में उत्पन्न होने वाले सुख के भी अभेद की अनुमिति होने की विपदा आयेगी । यदि रोंगटे खड़े होने का कार्य तुल्य होने पर भी भिन्न भिन्न सन्तान में सन्तानभेद से अपने-पराये सुख का भेद ही मानेंगे तो वहाँ भी प्रश्न होगा कि सन्तान का भेद कैसे सिद्ध है ? यदि सन्तानभेद की सिद्धि अन्यसन्तानभेद के आधार पर की जाय तो उस अन्यसन्तानभेद की सिद्धि के लिये और एक सन्तानभेद.....इस तरह अनवस्था चल पडेगी । यदि स्वभाव के भेद से ही सन्तान का भेद मान कर अनवस्था दोष का निवारण किया जाय तो भिन्न भिन्न संतानों में भी स्वभावभेद से ही सुखभेद माना जा सकता है। अब इस पर से यह समझना होगा कि अपने-पराये संतान में स्वरूप भेद से सुखभेद जैसे सत्य है वैसे ही पूर्वक्षण में स्वदृष्ट पदार्थ और उत्तरक्षण में परदृष्ट पदार्थ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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