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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
३२५ संनिहिता तदानीमनुत्पन्नेऽपि पूर्वदर्शने प्रतिभाति तथा दृष्टतापि सकलतनुभृतामनुत्पन्नेऽपि पूर्वदर्शने स्फुटवपुषि दर्शने प्रतिभासताम् न किंचित् पूर्वदर्शनस्मरणेन ? एवं च येनाप्यसावर्थः पूर्वान्नावगतः सोऽपि दृष्टतामवगच्छेत् । ततो 'नीलादिकमेतत्' इति पश्यति 'पूर्वदृष्टम्' इत्येतच्च स्मरणादध्यवस्यति न तु 'पूर्वदृष्टमेतत्' इत्येका प्रतीतिः ।
ननु 'इदं प्रतिभासमानमतीतसमये मया दृष्टम्' इत्येवं स्मृतिरनुभूयते न च पूर्वदृष्टतानुभवव्यतिरेकेण दृश्यमानस्य स्मृतिः सम्भवत्येवमाकारा - असदेतत् यतो 'दृष्टम्' इति मतिः स्मृतिरूपमासादयन्ती तत्कालावधि दर्शनविषयमध्यवसन्ती लक्ष्यते न तु वर्तमानकालपरिगतमर्थस्वरूपमधिगच्छति, वर्तमानकालतां तु दर्शनमनुभवति पूर्वरूपासंगतामिति न काचित् प्रतिपत्तिरस्ति या वर्तमानं 'पूर्व दृष्टम्' इत्यवगच्छति । तन्त्र प्रत्यभिज्ञाऽपि पूर्वापरयोरभेदमधिगन्तुं समर्था । ___ अथास्मदर्शनविरतावप्युपलभ्यते वज्रोपलादिरों नरान्तरेणेत्यभिन्नः । नैतत् सारम्, मद्दर्शनानु(?प)इस लिये उस का पूर्वदर्शन उत्पन्न होने पर भी वर्तमान में भासित होती है, इसी तरह पूर्वदर्शन न होने पर भी वर्तमान में उत्पन्न दृष्टता का वर्तमान स्पष्टशरीरी दर्शन में सभी देहधारीयों को दिखाई दे तो क्या बाध है ? फिर पूर्वदर्शन या स्मरण की जरूर ही क्या ? इस प्रकार तो जिस ने उस अर्थ का पहले बोध नहीं किया है उस को भी उस दृष्टता का बोध हो सकता है क्योंकि दृष्टता तो उस में वर्तमान में उत्पन्न हो कर मोजुद है । सारांश यह है कि 'मैनें पहले यह नीलादि देखे हैं। यह कोई एक दर्शनात्मक प्रतीति नहीं है किन्तु इस में दो प्रतीतियों का मिलन हो गया है, एक तो 'यह नीलादि है' यह दर्शन प्रतीति है और दूसरा 'पहले देखा है' यह स्मरण का अध्यवसाय है।
★ वर्तमान अर्थ का भान स्मृति में निषिद्ध ★ आशंका - 'यह जो भासित हो रहा है वह भूतकाल में मैंने देखा था' इस प्रकार की स्मृति सभी को अनुभवसिद्ध है । यदि पूर्वदृष्टता का दर्शन न होता तो उक्त आकार वाली दृश्यमान की स्मृति भी अनुभवगोचर न होती ।
उत्तर : यह वक्तव्य गलत है, वास्तव में यहाँ 'देखा था' इस प्रकार की जो बुद्धि है वह स्मृतिरूप है, यही स्मृति मानो अपनी कालमर्यादा में दर्शन के विषय को अध्यवसित करती हुयी लक्षित होती है किन्तु वर्तमानकाल व्यापी अर्थ के स्वरूप का अवबोध वह नहीं करती । पूर्वरूप से अमीलित वर्तमानकालता का अवबोध तो सिर्फ दर्शन ही करता है । अत: ऐसी कोई मति नहीं है जो वर्तमान अर्थ का 'पहले देखा था' इस प्रकार अवबोध कर सके। निष्कर्ष - प्रत्यभिज्ञा पूर्व-अपर के अभेद का अबबोध करने के लिये सक्षम नहीं है ।
★ स्वदर्शनविषय में परकालीन अन्यदर्शन का असम्भव ★ __ आशंका : वज्र या कंकर आदि तो हमारा देखना उपरत हो जाय उस समय भी दूसरे को दिखाई देता है इस लिये पूर्वक्षण - उत्तरक्षण की वस्तु में अभेद सिद्ध हो जाता है ।
उत्तर : यह निदर्शन असार है, क्योंकि इस तथ्य में कोई भी ऐसा ठोस प्रमाण नहीं है जिससे मेरा
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