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________________ ३२४ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् थापि पूर्वरूपता पूर्वमनुभूतेति इदानींतनदर्शनाभावेऽपि पूर्वतामात्रे स्मृत्युदयः नन्वेवं पूर्वतामात्रमेव पूर्वदर्शनावगतम् नेदानीन्तरूपव्यापितयापि तदवगतं स्यात् । तन्न पूर्वापररूपतयोरेकतावगमः सिद्धः । न च पुनर्दर्शने 'सति स एवायं मया यः प्राक्परिदृष्ट:' इति प्रतिपत्तेरभेदावगमः पूर्वापरयोः, यतः पूर्वापराभ्यां प्रत्ययाभ्यां न पूर्वापररूपग्रहणम् दर्शनस्य । न च तत्कालभाविस्वरूपं पूर्वं परं वा भवितुमर्हति, साम्प्रतिकरूपव्यवहारोच्छेदप्रसक्तेः । न च ' साम्प्रतिकरूपं पूर्वं मया परिदृष्टम्' इति निश्चयो युक्तः तस्य वैतथ्यप्रसंगात् । नन्वेवं पूर्वरूपता वर्त्तमाने रूपे कथमवसीयते ' इदं मया पूर्वं दृष्टम्' इति भेदसद्भावात् ? तर्ह्यभेदेऽपि कथं वर्त्तमानस्य रूपस्य पूर्वदृष्टतावगमः ? 'पूर्वदृष्टत्वात्' इति न वक्तव्यम्, यतो दृष्टता पूर्वदर्शनगोचरीकृतं रूपम् तद्दर्शनं चेदानीमतीततयाऽसत् तद्दृष्टताप्युपरतेति नासती वर्त्तमानदर्शनपथमवतरतीति । न च तद्दर्शने प्रच्युते तद्दृश्यमानताप्युपरतेति न सा साम्प्रतिकदर्शनावसेया, दृष्टता तूत्पन्नेति वर्त्तमानदर्शनावसेया, यतो यदि दृष्टता पदार्थानां तदात्वे संनिहिता तदा यथा - तो इस पर से यही फलित होगा कि पूर्व दर्शन से सिर्फ पूर्वता का ही ग्रहण हुआ है, वही वर्त्तमानकाल तक व्यापक है ऐसा तो ग्रहण नहीं हुआ । तात्पर्य, पूर्वरूपता और वर्त्तमानरूपता का एक-साथ अभेद अनुभव सिद्ध न होने से उन से एकत्व का भान सिद्ध नहीं होता । ★ दूसरीबार के दर्शन से अभेदसिद्धि अशक्य ★ एक बार दर्शन हो जाने के बाद दूसरी बार के दर्शन में 'यह वही है जिस को पहले मैंने देखा था' ऐसा अनुभव मान कर उस से अभेद की प्रसिद्धि की आशा नहीं की जा सकती । कारण, पूर्वप्रतीति से कभी अपररूप का ग्रहण नहीं होता और अपर प्रतीति से कभी पूर्व रूप का ग्रहण नहीं होता, कोई भी दर्शनप्रतीति अपने काल की मर्यादा में रह कर यानी स्वसमानकालवर्त्ती ही पदार्थ के स्वरूप की ग्राहिका होती है । वस्तु का अपने काल में जो स्वरूप होता है वह न तो पूर्व है न अपर, क्योंकि यदि वर्त्तमानरूप में पूर्वता या अपरता का योजन करेंगे तो उस की वर्त्तमानता का ही विलोपन हो जायेगा । ' मैंने यह वर्त्तमानतारूप पहले (पूर्व) के रूप में देखा है' ऐसा निश्चय अकृत्रिम हो नहीं सकता क्योंकि वहाँ वर्त्तमानता रूप में वैपरीत्य का यानी पूर्वरूपता का प्रसंजन हो जायेगा । प्रश्न: आप के मतानुसार भेद ही भेद है तो 'यह मैंने पहले देखा है' इस अनुभव में वर्त्तमानरूप में पूर्वरूपता का बोध कैसे हो सकता है ? उत्तर : आप के मतानुसार अभेद ही अभेद है तो वर्त्तमानरूप का उस से उल्टे रूप में अर्थात् पूर्वदृष्ट रूप में अवबोध कैसे हो सकता है ? 'वह पहले देखा हुआ है – पूर्वदृष्ट है' ऐसा मत कहना, क्योंकि दृष्टता पूर्वदर्शनविषयीभूत स्वरूप है, उस का दर्शन वर्त्तमान में तो अतिक्रान्त हो जाने से असत् है, अतः उस की विषयभूत दृष्टता भी पूर्वदर्शनसापेक्ष होने से वर्त्तमान में अस्त हो गयी, असत् हो गयी, इसलिये वर्त्तमान दर्शन गोचर नहीं बन सकती । यदि ऐसा कहा जाय पूर्व दर्शन का अस्त हो जाने पर उस दर्शन की दृश्यमानता का भी अस्त हो जाता है इस लिये वह वर्त्तमानदर्शनबोध्य नहीं रहती, किन्तु पूर्वदर्शन से वस्तु में वर्त्तमानक्षण में जो दृष्टता नामक संस्कार उत्पन्न हुआ वह तो वर्त्तमान है इस लिये वह तो वर्त्तमानदर्शन का विषय हो सकती है । तो यह बात ठीक नहीं है, दृष्टतासंस्कार यदि पदार्थों में उस काल में ( वर्त्तमान में ) संनिहित है इस लिये वर्त्तमानदर्शन का विषय बनती है ऐसा आप मानते हैं लेकिन वर्त्तमान में संनिहित नीलता पूर्व काल में अनुत्पन्न थी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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