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द्वितीयः खण्ड:-का-३
३२३ क्षणिकत्ववदनुभवविषयत्वेऽपि प्रतिक्षणं स्मृतिर्व्यवहारमुपरचयन्ती तत्र सफला भवेत् ।
किंच वर्तमानवस्तुनि दर्शनाद् यदि पूर्वरूपतायां स्मृतिर्भवेत् भाविरूपतायामपि भवेद् अभेदात् । तथाहि - भिन्नवस्तुनि तस्योपलम्भो नास्तीति तत्र स्मृतिर्न भवेदिति युक्तम्, अभिने तु पूर्वरूपतेव भाविरूपता दर्शनेनानुभूतेति पूर्वरूपतायामिव मरणावधिसकलभाविरूपतायामपि स्मृतिर्भवन्ती केन वार्येत अभेदेनानु- भूतत्वाऽविशेषात् ? न च पूर्वमनुभूतमपि पुनर्दर्शनोदये स्मृतिपथमुपयातीति पुनर्दर्शनसंगतं स्मृतिहेतुः, पूर्वदृष्टे गिरिशिखरादाविदानीमनुभवाभावेऽपि स्मृतेरुदयदर्शनात् । यदि पुनः स्मृतिरिदानीन्तनानुभवाभावेऽप्युपजायते तर्हि भावदर्शनपरिगतेपीदानीन्तनहक्संस्पर्श(शा)भाजि स्मृतिरुदीयताम् । अमें विकल्पोदय न होने के कारण क्षणभेद को व्यवहार में लाने के लिये अनुमान की उपयोगिता होती है। इसी तरह पूर्वरूपता का अनुभव भी वर्तमानदर्शन में होता है किन्तु उस को व्यवहार में लाने के लिये स्मृति सफल होगी।
उत्तर : ऐसा नहीं हो सकता । कारण, बीजली आदि के प्रत्यक्ष में प्रतिक्षण क्षणभेद का यानी चमकी - पुन: बुझ गयी, पुन: चमकी और बुझ गयी - ऐसा त्रुटक त्रुटक प्रतिभास अनुभूत होता है इस लिये क्षणभेद का विकल्पप्रत्यक्ष सिद्ध है जो यह स्पष्ट कर देता है कि क्षणभेद दर्शन का विषय हो चुका है। दूसरी ओर पूर्वरूपता का भान स्मृति के अलावा किसी भी ज्ञान में होता नहीं है जिससे कि यह मान सके कि क्षणिकत्व जैसे अनुभव का विषय है वैसे पूर्वरूपता भी अनुभवविषय होते हुए भी उस को व्यवहार में लाने के लिये स्मृति सफल हो सकेगी।
यह भी सोचना चाहिये कि वर्तमान भाव के दर्शन से जब पूर्वरूपता के बारे में स्मृति का उदय हो सकता है उस पूर्वरूपता से अभिन्न भाविरूपता की स्मृति क्यों नहीं होती ? अभेदवाद में पूर्वरूपता और भाविरूपता तो एकरूप ही होती है इस लिये दोनों की स्मृति होनी चाहिये । एकरूप कैसे है यह देखिये - आप के मत से भिन्न वस्तु उपलम्भ का विषय नहीं होने से भिन्न विषय की स्मृति न हो यह तो युक्त बात है, किन्तु अभिन्न वस्तुवाद मानने पर वस्तु के भाविरूप और पूर्वरूप में भेद न होने से पूर्वरूपता की तरह भाविरूपता भी दर्शन का विषय बन ही चुकी है, इस लिये पूर्वरूपता की जैसे स्मृति होती है इसी तरह मरणपर्यन्त सकल भाविरूपता की स्मृति होनी चाहिये । कौन इस को रोकेगा ? जब कि अभिन्न होने के कारण पूर्वरूप - भाविरूप में भेद तो है नहीं ।
यदि ऐसा कहा जाय- पूर्वरूप पहले अनुभूत होने पर भी पुन: उस का दर्शनोदय जब होता है तभी स्मरणगोचर होता है, इस से यह सिद्ध होता है पुन: दर्शनोदय से संगत पूर्वानुभव स्मृति का हेतु होता है, भाविरूप का पुन: दर्शनोदय ही नहीं होता इस लिये उस की स्मृति भी नहीं होती । - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पहले दृष्टिगोचर रहे हुए गिरिशिखरादि अब उस का दर्शन न होने पर भी स्मृतिगोचर होते हैं यह सभी को दिखता है । अत: जब वर्तमान अनुभव के विना भी स्मृति उत्पन्न होती है तो वर्तमान में भाविरूप के दर्शनोदय के विना भी, भावि दर्शन के विषयों के बारे में स्मृति का उदय हो जाना चाहिये । यदि ऐसा कहें कि - भाविरूपता पूर्व में अनुभूत नहीं रहती वह तो अनुभविष्यमाण होती है, पूर्वरूपता तो पूर्वानुभूत होती है इस लिये वर्तमान दर्शन का विषय न होते हुये भी पूर्वता की स्मृति का उदय हो सकता है। -
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