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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
३२७ भेदाद् भिद्यताम्, यथा च स्वरूपभेदात् स्व-परसन्ततिवर्तिनः सुखस्य भेदः तथा कालभेदात् स्वपरदृष्टस्यार्थस्य किं न भेदः ? न च परस्परपरिहारेणोपलम्भप्रवृत्तेः स्व-परसन्ततिवर्तिन्याः प्रीतेर्भेदः, अर्थस्यापि स्वपरदृष्टस्याऽयुगपदन्योन्यपरिहारेणोपलम्भवृत्तेर्भेदप्रसक्तेः। यतो यदा स्वदृग्गोचरचारी न तदा परदृशि प्रतिभाति यदा चोत्तरसमये परसंवेदनमवतरति न तदा स्वसंवेदनमिति कथं न भेदः ? अतो विच्छिन्नदर्शनस्यार्थस्य पुनदर्शने दलितोद्गतनखशिखरदर्शन इव प्रतिभासभेदाद् भेदः । प्रत्यभिज्ञा त्वभेदाध्वसायिनी प्रतिभासभेदेन बाध्यमाना लूनपुनर्जातकेशादिष्विव भ्रान्तेति न तत्प्रतिपायोऽभेदः पारमार्थिकः ।
न च यत्राऽविच्छिन्नं दर्शनं बहिरर्थमवतरति तत्र प्रतिभासभेदाभावात् कथं पौवापर्यभेदावगम इति वक्तव्यम् यतः प्रतिभासमानतैव पदार्थानां सत्ता। यदाह - "उपलब्धिः सत्ता, सा चोपलभ्यमान वस्तु योग्यता तदाश्रया वा ज्ञानवृत्तिः ।" [ ? ] इति । तत्र यदि क्षणिकं दर्शनम् तथा सति तत्र स्फुटप्रतिभासस्यार्थस्य क्षणभेद एवाऽवभाति न क्षणाभेदावगमः । यतः क्षणिकं दर्शनं स्वकालमर्थवगन्तुं क्षमम् न कालान्तरपरिष्वक्तम्, तस्य तदानीमभावात् । न हि यदा यत्रास्ति तदा तत् तकालमर्थमवगच्छति, सकलातीतपदार्थग्रहणप्रसंगात् । अतोऽविच्छिन्नदर्शनेऽपि प्रतिकलमपरापरज्ञानप्रसवै. में कालभेद से भी भेद हो सकता है। यदि ऐसा कहें कि - "अपने संतान में जब सुखोपलब्धि होती है तब अन्य सन्तान में नहीं होती, अन्यसन्तान में सुखोपलब्धि होती है तब स्वसन्तान में नहीं होती इस प्रकार एक-दूसरे का उपलम्भ एक-दूसरे को छोड कर होता है इस से उन में भेद सिद्ध होता है' - तो अर्थ में भी इस प्रकार भेदसिद्धि प्रसक्त होगी, क्योंकि स्वदृष्ट अर्थ और अन्यदृष्ट अर्थ की असमानकाल में एक-दूसरे को छोड कर उपलब्धि होती है, अर्थ जब पूर्वक्षण में दूसरे को दृष्टिगोचर होता है तब अपने को नहीं होता - ऐसा दिखता है तो अर्थ में भी भेद क्यों नहीं मानते ? अपनी नजर को हठा लेने के बाद दर्शन का विच्छेद हो जाने पर, फिर से वहाँ नजर डालते हैं तो जो अर्थ दिखाई देता है वह प्रतिभासभेद से भिन्न होता है, जैसे नख को देखने के बाद काट दिया, थोडे दिन के बाद नया उगा, वह तुल्य दिखने पर भी भिन्न होता है। अब अभेदाध्यवसायी प्रत्यभिज्ञा ही उस के विषय के अभेद में बाधक है, जैसे काटे हये केश पुन: उग आते हैं वहाँ जैसे अभेद की प्रत्यभिज्ञा भ्रान्त होती है वैसे ही सामान्यत: अर्थाभेदसाधक प्रत्यभिज्ञा भी भ्रान्त ही होती है । अत: उस से प्रकाशित होने वाला अभेद पारमार्थिक नहीं हो सकता।
★ निरंतरदर्शनस्थल में भेद कैसे ? प्रभोत्तर ★ प्रश्न : प्रतिभासभेद से भेद तो विच्छिन्न दर्शन के स्थल में हो सकेगा, किन्तु जहाँ विच्छेद के विना निरंतर बाह्यार्थभासी दर्शन उदित हो रहा है वहाँ तो प्रतिभासभेद नहीं है, कैसे वहाँ पूर्व-अपर पदार्थ के भेद की सिद्धि होगी ?
उत्तर : इस प्रश्न को अवकाश नहीं है । कारण, प्रतिभासमानता ही पदार्थों की सत्ता है, सत्ता कोई और चीज नहीं है । कहा है - "उपलब्धि ही सत्ता है, उपलब्धि चाहे उपलब्ध होने वाली वस्तु की योग्यतारूप हो या तो उस योग्यता के आश्रय से उचित होनेवाली ज्ञानवृत्ति हो" । अब जिस को आप निरन्तर दर्शन कहते हैं वह पूरा एक न हो कर क्षणसन्तानरूप है, दर्शन तो क्षणिक ही होता है और वह सिर्फ स्वकालवर्ती अर्थ के अवबोध में ही सक्षम होता है, स्वभिन्नक्षण से उस का कोई नाता नहीं है क्योंकि स्वभिन्नक्षण में वह
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