________________
द्वितीयः खण्डः - का० - ३
३१९
सम्बद्धपदार्थप्रतिभासनात् । अथ वर्त्तमानदर्शने पूर्वरूपग्रहणम्, ननु न प्रत्यक्षेण पूर्वरूपग्रहणम् तत्र वर्तमाने ग्रहणप्रवृत्तस्य तस्य पूर्वत्राऽप्रवर्त्तनात् । न चाप्रवर्त्तमानं तत् तत्र तदविच्छेदं स्वावभासिनोऽवगमयितुं समर्थम् येन नित्यताधिगतिर्भवेत् । वर्त्तमानग्रहणपर्यवसितं ह्यध्यक्षं तत्कालार्थपरिच्छेदकमेव, न पूर्वापरयोस्तेन एकताऽधिगन्तुं शक्या । न स्मृतिरेव पूर्वरूपतां तत्र संघटयति, सा च स्वग्रहणपर्यव - सितव्यापारत्वाद् बहिरर्थमनुद्भासयन्ती न पूर्वापरयोस्तत्त्व संघटनक्षमा । तत्र निरन्तरदर्शनेऽप्यभेदावगति
रध्यक्षतः ।
न च पूर्वापरदर्शनयोरभेदप्रतिपत्तावसामर्थ्येऽप्यात्मा वर्त्तमानसमयसंगतस्य पूर्वकालतामधिगच्छति, दर्शनरहितस्य स्वापाद्यवस्थास्विव तस्याप्यभेदप्रतिपतिसामर्थ्यविकलत्वात् । प्रत्यक्षा च संविद् न पूर्वाप - रयोर्वर्त्तते तदप्रवृत्तौ चानुमानमपि न तत्र प्रवर्त्तितुमुत्सहते, स्मरणस्य च प्रामाण्यमतिप्रसंगतोऽनुपपन्नमिति नात्मापि स्थायितामधिगच्छति । न चात्मनोप्यात्मा कालान्तरानुगतिमवगमयति, वर्त्तमानकाका दर्शन है" ऐसा कहने पर कहना पडेगा कि अविच्छेदरूप से एक चीज का दर्शन कहो या अनन्यदर्शन कहो इस में तो कुछ फर्क नहीं लेकिन वही कहाँ सिद्ध है ? एक-दूसरे से अमिलित ऐसे वर्त्तमानक्षणसम्बद्ध ही पदार्थ प्रत्यक्ष में दिखाई देता है । यदि ऐसा ही कहा जाय कि जब वर्त्तमानसम्बद्ध पदार्थ को देखते हैं तब उसमें पूर्वगृहीतरूप भी दिखता है - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वर्त्तमानसमयसम्बद्ध वस्तु को देख कर दृष्टा उसी के ग्रहण में सक्रिय होता है, पूर्वगृहीतरूप के ग्रहण में सक्रिय नहीं होता, इस से यही फलित होता है कि प्रत्यक्ष से पूर्वगृहीतरूप का ग्रहण नहीं होता । जब प्रत्यक्ष पूर्वगृहीत रूप के ग्रहण में प्रवृत्त ही नहीं होता तब अविच्छेदरूप से अपने विषय को प्रकाशित करने में भी वह समर्थ नहीं हो पाता, यदि समर्थ होता तब तो नित्यत्व सिद्ध हो जाता । हकीकत यह है कि वर्त्तमान काल के ग्रहण में ही समर्थ होने वाला प्रत्यक्ष सिर्फ वर्त्तमानकालीन अर्थ का ही बोधक हो सकता है, पूर्व उत्तर भावों की एकता को प्रकाशित करने की गुंजाईश उसमें नहीं होती । स्मृति से भी पूर्वरूपता का संयोजन सम्भव नहीं है, क्योंकि वह तो अपने विषय के ग्रहण में रक्त रहती है, बाह्यार्थ की ओर देखती भी नहीं, तब वह पूर्वदृष्ट और वर्त्तमानकालीन बाह्यार्थ का एकीकरण कैसे करेगी ? सारांश, कुछ काल तक निरन्तर दर्शन के आधार पर भी प्रत्यक्ष से अभेद का बोधन दुष्कर है ।
★ आत्मा के द्वारा अभेद प्रतिपत्ति अशक्य ★
-
यदि कहा जाय
पूर्वदर्शन और उत्तर दर्शन अन्योन्यव्यापक न होने से वस्तु के अभेद प्रकाशन में अक्षम होने पर भी, अत्मा है जो वर्त्तमान समयवर्त्ति अर्थ में पूर्वकालवृत्तित्व का अनुसंधान कर लेता है तो यह भी शक्य नहीं है । कारण, निद्रादिअवस्था में आत्मा को किसी भी वस्तु का भान नहीं रहता इस से इतना तो निश्चित है कि दर्शन के विना वह अकेला स्वयं वस्तु-बोध कर लेने के लिये असमर्थ है, और यह भी है कि दर्शन से अभेदग्रहण नहीं होता है; तो उसके आधार पर आत्मा भी अभेदग्रहण के लिये कैसे समर्थ होगा ? प्रत्यक्ष संवेदन पूर्वक्षण और उत्तरक्षण में एकरूप नहीं होने से वह जब पूर्व - उत्तर भाव की एकता दिखाने में असमर्थ है तब प्रत्यक्ष के आधार पर प्रवृत्त होने वाला अनुमान भी एकता के प्रकाशन में सक्षम नहीं हो सकता । स्मृति यदि प्रमाणभूत मानी जायेगी तो उससे अतीत में प्रवृत्ति होने की आपत्ति का अतिप्रसंग होगा, अतः वह प्रमाण नहीं है इसलिये उस से पूर्वक्षण- उत्तरक्षण में अनन्य स्थायी आत्मा भी सिद्ध होना शक्य
Jain Educationa International
-
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org