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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् लपरिगतस्यैव परिस्फुटरूपतया तस्यापि प्रतिभासनात् । न च स्वसंविदेव आत्मनः स्थायितामुद्भासयति, अतीतानागतसकलदशावेदनप्रसक्तेः अतीताऽनागतजन्मपरम्परापरिच्छेदः स्यात् । न चातीतानागतावस्था तत्संवेदने न प्रतिभाति तत्सम्बन्धी तु पुमाँस्तत्रावभासत इति वक्तुं क्षमम्, यतस्तदवस्थाऽनवगमे तद्व्यापितया तस्याप्यनवगमात् । वर्तमानदशा हि स्वसंवेदने प्रतिभातीति तत्परिष्वक्तमेवात्मस्वरूप तद्विषयः, भूत-भाविदशानां तु तत्राप्रतिभासने तद्गतत्वेनात्मनोप्यप्रतिभासनमिति न स्वसंवेदनादपि तदभेदप्रतिपत्तिः ।
अथ प्रत्यभिज्ञा पदार्थानां स्थायितालक्षणमभेदमवगमयति । ननु केयं प्रत्यभिज्ञा ? अथ 'स एवायम्' इति निर्णयः । नन्वयमपि प्रत्यक्षम् अनुमानं वा ? न तावत् प्रत्यक्षम्, विकल्परूपत्वात् । नाप्यनुमानम्, अवगतप्रतिबद्धलिंगानुद्भूतत्वात् । न चाक्षव्यापारे सति ‘स एवायम्' इति पूर्वापरतामुल्लिखन् प्रत्ययः समुपजायते इति कथं नाक्षजः इति वक्तव्यम्, अक्षाणां पौर्वापर्येऽप्रवृत्तेः । पूर्वापरसम्बन्धविकले वर्तमानमात्रेऽर्थेऽक्षं प्रवर्तत इति तदननुसार्यपि दर्शनं तत्रैव प्रवृत्तिमत् नातीतानागतयोरिति न ततस्तद्वेदनम् । न च 'पूर्वदृष्टमिदं पश्यामि' इत्यध्यवसायादतीतसमयपरिप्वक्तभाववेदनमिति युक्तम्, यतः नहीं है। अरे ! आत्मा को तो यह भी पता नहीं चलता कि 'अनन्य काल में मैं मौजूद था या रहँगा , क्योंकि आत्मा भी सदैव वर्तमानकाल से अनुषक्त ही स्फुटरूप से संविदित होता है । यदि कहें कि - आत्मविषयक संवेदन आत्मा के स्थायित्व का प्रकाशन करता है- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि आत्मसंवेदन में भूत-भाविकाल अवस्था का द्योतन होगा तो समस्त भूत भाविकाल अवस्था के संवेदन की आपत्ति आयेगी, फलत: भूत-भविष्य के समस्त जन्म-जन्मान्तर परम्परा का बोध प्रसक्त होगा । ऐसा नहीं कह सकते कि - आत्मसंवेदन में भूत-भावि सर्वअवस्था संविदित नहीं होती किन्तु सिर्फ भूत-भाविकाल सम्बद्ध आत्मा ही संविदित होता है- ऐसा कहेंगे तो पर्व-उत्तर अवस्थाओं में व्यापकता का बोध न होने से पूर्व-उत्तरकाल में आत्मा की व्यापकता का भी बोध सिद्ध नहीं हो सकेगा । वास्तव में आत्मसंवेदन में वर्तमानकालीन अवस्था का ही अनुभव होता है इसलिये वर्तमानकालानुषक्त आत्मस्वरूप ही आत्मसंवेदन के विषयरूप में सिद्ध हो सकता है । भूत-भावि अवस्था आत्मसंवेदन में अनुभवगोचर नहीं होती तो उन अवस्था से सम्बद्ध आत्मा का भी प्रतिभास नहीं हो सकता, फलत: आत्मसंवेदन से आत्मा के अभेद की सिद्धि भी नहीं हो सकती।
*प्रत्यभिज्ञा से अभेदग्रहण असम्भव ★ आशंका :- पदार्थों की स्थायिता यानी अभेद का उद्भासन प्रत्यभिज्ञा करती है । 'प्रत्यभिज्ञा क्या है' प्रश्न का उत्तर है कि 'वही है यह ऐसा निश्चय ।
उत्तर :- वैसा निश्चय प्रत्यक्षात्मक है या अनुमानात्मक ये दो विकल्प प्रश्न हैं । निश्चय तो कल्पनात्मक है अत: प्रत्यक्षरूप नहीं हो सकता । अनुमानात्मक भी नहीं हो सकता क्योंकि उसका उद्भव प्रसिद्धव्याप्तिवाले लिंग के द्वारा नहीं हुआ।
प्रश्न :- दृष्टि को पदार्थ के साथ मिलाने पर 'वही है यह' यह प्रतीति होती है जिस में स्पष्ट पूर्वापरता का उल्लेख रहता है तो इसको क्यों इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष न माना जाय ?
उत्तर :- नहीं मान सकते, क्योंकि इन्द्रियाँ पूर्वता या अपरता के प्रकाशन के लिये प्रवृत्तिशील नहीं होती । उनका व्यापार पूर्व या अपर से असम्बद्ध वर्तमानमात्र अर्थ के लिये ही सीमित होता है । इसलिये इन्द्रिय व्यापार
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